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त्रैवर्णिकाचार। नववाँ अध्याय ।
मंगलाचरण। वन्दे श्रीसुमहेन्द्रकीर्तिसुगुरुं विद्याब्धिपारपदं । कालेऽद्यापि तपोनिधि गुणगणैः पूर्ण पवित्रं स्वयम् ॥ नगत्वादिकदुष्टसत्परिषहैर्भग्नो न यो योगिराद् ।
पायान्मां स कुबुद्धिकष्टकुहरात्संसारपाथोनिधेः॥१॥ मैं, विद्यारूपी समुद्र के पार पहुंचानेवाले, गुणोंकर परिपूर्ण, पवित्र और इस कलिकालमें अद्वितीय तपके खजानेरूप श्रीमहेन्द्रकीर्ति सद्गुरुको बन्दना करता हूं। जो योगीश्वर नमता आदि परीषहोंसे भन्न नहीं हुआ है-जिसने नग्नता आदि दुष्ट परीषहोंको जीत लिया है, वह भी महेन्द्रकीर्ति गुरु दर्बुद्धिरूपी अत्यन्त कष्टदायी गढ़ेरूप संसारसमुद्रसे मेरी रक्षा करें ॥ १ ॥
अजितं जितकामारि मुक्तिनारीमुखपदम् ।
यज्ञोपवीतसत्कर्म नत्वा वक्ष्ये गुरुक्रमात् ॥ २॥ मैं, जिनने कामरूपी शत्रुओंको जीत लिया है-अपने बशमें कर लिया है और जो मुक्ति-स्त्रीको सुख देनेवाले हैं, उन श्रीअजितनाथ जिनेन्द्रको प्रणामकर गुरुपरंपराके अनुसार यज्ञोपवीत नामके सत्कर्म ( सत्क्रिया) को कहूंगा ॥ २॥
उपनयन क्रिया। गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम् । गोदेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विशः॥३॥ ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्य विमस्य पञ्चमे ।
राज्ञो बलार्थिनः षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे ॥ ४॥ ब्राह्मणके लड़केका गर्भसे लेकर आठवें वर्षमें, क्षत्रियका गर्भसे ग्यारहवें वर्षमें और वैश्यका गर्भसे बारहवें वर्षमें यज्ञोपवीत संस्कार करे । विद्या अधिक चाहनेवाले ब्राह्मण-पुत्रका पांचवें वर्षमें, बलके चाहनेवाले क्षत्रिय-पुत्रका छठे वर्ष में और व्यापारकी इच्छा रखनेवाले बैश्य-पुत्रका आठवें वर्षमें यज्ञोपवीत संस्कार किया जाय ॥ ३-४ ।।
आ षोडशाच द्वाविंशाच्चतुर्विंशात्तुवत्सरात् ॥ ब्रह्मक्षत्रविशा कालो झुपनयनजः परः ॥५॥ अत ऊर्ध्व पतन्त्येते सर्वधर्मबहिष्कृताः।
प्रतिष्ठादिषु कार्येषु न योज्या ब्राह्मणोत्तमैः ॥ ६ ॥ ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्योंके उपनयन संस्कारका अंतिम काल क्रमसे सोलह वर्ष, वाईत वर्ष और चौवीस वर्ष तकका है। यदि इस समय तक इनका यज्ञोपवीत संस्कार न हो तो इसके