________________
- त्रैवर्णिकाचार ।
२०१
भोजन-प्रमाण। आपूर्णमुदरं भुजेच्छङ्कालज्जाविवर्जितः ।
अतिक्रमो न कर्तव्य आहारे धनसञ्चये ॥ २१४॥ शंका और लज्जाको छोड़कर पेट भरे पर्यन्त भोजन करे। भोजनके करनेमें और धन इकट्ठा करनेमें अत्यन्त लालसा न करे । भावार्थ-जब भोजन करनेको बैठे तब पेट भरकर भोजन करे । भोजन करते समय कोई तरहकी लज्जा या आशंका न करे तथा खूब अघाकर भी न खावे; क्योंकि अधिक खा लेनेसे सुस्ती आती है और निद्रा भी खूब आती है । अतः हमेशह परिमित भोजन करना चाहिए ॥ २१४॥
भोजनके पश्चात् करने योग्य क्रिया। ततोऽन्नपाचनार्थ च शीतलं तु पिबेज्जलम् ।
मुखं जलेन संशोध्य हस्तौ प्रक्षालयेत्ततः ॥ २१५॥ पेट भर भोजन करनेके बाद भोजन पचनेके लिए थोड़ा ठंडा पानी पीवे, और मुखको जलसे साफ कर दोनों हाथ अच्छी तरह धोवे ॥ २१५॥
ततोऽङ्गणे पुनर्गत्वा शलाकादन्तघर्षणम् ।
कृत्वा जलेन हस्तौच पादौ प्रक्षालयेच्छुचिः ॥ २१६ ॥ फिर उठकर आँगनमें जाकर दाँतोंनसे दाँतोंको घिसे और जलसे हाथ-पैरोंको धोकर साफ करे ॥ २१६ ॥
न खाने योग्य भोजन । ब्रह्मोदने तथा चौले सीमन्ते प्रथमार्तवे ।
मासिके च तथा कृच्छे नैव भोजनमाचरेत् ॥ २१७ ॥ बलि चढ़ाया हुआ अन्न, और चौल-संबंधी, सीमंत-क्रिया-संबंधी, गर्भाधान-संबंधी तथा मासिकश्राद्ध-संबंधी अन्न-भोजन न खावे.तथा कष्टके समय भी भोजन न करे ॥ २१७ ॥
गणानं गणिकानं च शूलिकानमधर्मिणः ।
यत्यन्नं चैव शूद्रान्नं नाश्नीयाद्गृहिसत्तमः ॥ २१८॥ उत्तम गृहस्थ जो भोजन बहुतसे मनुष्योंके लिए तैयार किया जाता है उसे न खावे; तथा वेश्याका अन्न, अधर्मी पुरुषोंका अन्न, यतिका अन्न और शूद्रका अन्न भी न खावे ॥ २१८॥
एकादशे पक्षश्राद्धे सपिण्डप्रेतकर्मसु ।
प्रायश्चित्ते न भुज्जीत भुक्तश्चेत्सञ्जपेज्जपम् ॥ २१९ ॥ मरे हुए मनुष्यके ग्यारहवें दिनका, पखवाड़ेमें जो श्राद्ध होता है उसका, सपिंड प्रेतकर्मका और किसीको प्रायाश्चित्त दिया गया हो तो उस प्रायश्चित्तके समयका अन्न न खावे । यदि खा लेवे तो जाप जपे ॥ २१९॥
२६