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२.१२
सोमसेनभास्कविरक्ति
श्रीजिनगुणसम्पत्ति श्रुतस्कचं द्विकावलिम् । मुक्तावलिं. तथाऽन्यं च व्रतोद्देशं समादिशेत् ॥ ३५ ॥ चतुर्दश्यष्टमी चाद्य प्रातर्वा व्रतवासरम् । चान्द्रं बलं गृहाचारं कथयेज्जैनशासनात् ॥ ३६ ॥ कथां व्रतविधानस्य पुराणानि जिनेशिनाम्। ग्रहहोमं मृहाचारं कथयेजिनशासनात् ॥ ३७॥ यजमानेन यद्दत्तं दानं धान्यं धनं तथा । गृह्णीयावर्षभावेन बहुतृष्णाविवर्जितः ॥ ३८॥ आशीर्वादं ततो दद्याद्भक्तचित्तं न दूषयेत् । गृहमागत्य पुत्रादीन् तोषयेन्मधुरोक्तितः ॥ ३९ ॥ गृहचिन्तां ततः कुर्याद्वस्वैर्धान्यैश्च पूरयेत् ।
गोधनैर्दधिदुग्धैश्च तृणकाष्ठैश्च भूषणैः ॥ ४० ॥ ब्राह्मण, प्रातःकाल नवीपर जाकर अपने वस्त्रोंको धोवे और दर्भ वगैरह समिधा (होमादिका ईधन) लाकर घर पर रक्खे। इसके बादः यजमानके घर जाकर उसे धर्मोपदेश सुनाबे और ग्रह-शुद्धिके लिए तिथि, वार, नक्षत्र बतलावे; जिनेन्द्रदेवके मुणोंका, श्रुतस्कन्ध, द्विकावली, मुक्तावली तथा अन्य व्रतोंको समझावे; आज किंवा कल अष्टमी है, चतुर्दशी है, व्रत करनेका दिन है, चन्द्रमाका बल, गृहस्थका आचार, व्रतविधान सम्बन्धी कथाएं, जिनेन्द्रदेवोंके पुराण, ग्रहहोम, ग्रहाचार आदि जिन शासनके अनुसार बतलावे । फिर यजमान धन-धान्य आदि जो कुछ दे उसे लोभ-तृष्णा-रहित होकर बड़े हर्ष-पूर्वक स्वीकार करे। इसके बाद वह उसे आशीर्वाद दे। वह अपने भक्तके चित्तको नाराज न करे । फिर घर पर आकर मधुर वचनों द्वारा पुत्रादिकोंको सन्तुष्ट करे । इसके बाद घरमें कौनसी वस्तु है, कौनसी नहीं है, इसका विचार कर वस्त्र, धान्य, गौ, दही, दूध, घास, लकड़ी, आभूषण आदि लाकर घरमें रक्खे ॥ ३३–४०॥
ददाति प्रतिगृह्णाति सद्दानं जिनमर्चति ।
पठते पाठयत्यन्यानेवं ब्राह्मण उच्यते ॥ ४१॥ जो उत्तम दान देता-लेता है, जिनदेवकी पूजा करता है, स्वयं पढ़ता है और औरोंको पढ़ाता है, उसे ब्राह्मण कहते हैं ॥ ४१ ॥
पुत्रपौत्रसुतादीनां लौकिकाचाररक्षणम् । ... विवाहादिविधानं च कुर्याद्रव्यानुसास्तः ॥ ४२ ॥ गोऽश्वमहिषीमुख्यानि स्वं स्वं स्थानं निवेशयेत् । सन्धायाः समये सन्ध्यां विनः कुर्याक पूर्कत् ॥ ४३ ॥