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त्रैवर्णिकाचार।
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व्यापारके लिए यदि नाव आदिमें बैठकर द्वीपान्तरोंको जावे, तो वहांपर धर्मके निमित्त अपने शुद्ध आचरणकी रक्षा करता रहे । यदि कदाचित् दैवयोगसे समुद्र में डूबनेका मौका आ जाय तो जिनदेवका स्मरण करे ॥ १३९ ॥
व्यापारो वणिजां प्रोक्तः संक्षपेण यथागमम् ।
विपक्षत्रियवैश्यानां शूद्रास्तु सेवका मताः॥ १४०॥ यहांतक संक्षेपमें आगमके अनुसार वैश्योंका कर्तव्य-कर्म कहा । अब शूद्रोंका कर्तव्य-कर्म कहा जाता है । शूद्र लोग, ब्राम्हण, क्षत्रिय और वैश्योंके सेवक होते हैं ॥ १४० ॥
तेषु नानाविधं शिल्पं कर्म मोक्तं विशेषतः।
जीवदयां तु संरक्ष्य तैश्च कार्य स्वकमेकम् ॥ १४१ ॥ शूद्रोंके लिए तरह २ के शिल्प-कर्म विशेष रीतिसे कहे गये हैं। वे जीवोंकी दयाका पालन करते हुए अपने अपने कार्यको करें ॥ १४१ ॥
विपक्षत्रियविदशूद्राः मोक्ताः क्रियाविशेषतः।
जैनधर्मे पराः शक्तास्ते सर्वे बान्धवोपमाः ॥ १४२ ॥ लाभालाभे समं चित्तं रक्षणीयं नरोत्तमैः ।
अतितृष्णा न कर्तव्या लक्ष्मीभाग्यानुसारिणी ॥ १४३ ॥ ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र-ये चारों वर्ण अपनी अपनी क्रियाओंके भेदसे कहे गये हैं। ये सब जैनधर्मके पालन करनेमें दत्तचित्त रहते हैं, इसलिए सब भाई-बंधुके समान हैं। सबको नफा नुकसानमें समचित्त रहना चाहिए। तथा व्यापारमें अधिक लालसा भी न करना चाहिए। क्योंकि लक्ष्मी (धन) की प्राप्ति अपने अपने भाग्यके अनुसार होती है ॥ १४२-१४३ ॥
उद्यमेषु सदा सक्त आलस्यपरिवर्जितः ।
सदाचारक्रियायुक्तो धनं प्राप्नोति कोटिशः ॥ १४४ ॥ जो पुरुष आलस्य छोड़कर निरन्तर उद्योग करता रहता है और सदाचरणका पालन करनेमें तत्पर रहता है उसे करोड़ों रुपये प्राप्त हो जाते हैं ॥ १४४ ॥
सव्यापार तथा धर्मे आलस्यं न हि सौख्यदम् ।
उद्योगः शत्रुवन्मित्रमालस्पं मित्रवद्रिपुः ॥ १४५ ॥ उत्तम व्यापार तथा धर्ममें आलस्य (सुस्ती) करना सुखकर नहीं है । उद्योग कटु बचन बोलनेवाले शत्रकी तरह मित्र है, और आलस्य मीठे वचन बोलनेवाले मित्रकी तरह शत्र है। भावार्थ-यद्यपि उद्योग करनेसे कई तरहकी आपत्तियां झेलनी पड़ती हैं, परन्तु आखिर वह उद्योग मित्रोंके सरीखा ही कार्य करता है-अपना सहायक होता है । और यद्यपि आलस्य करनेसे अर्थात् सोते पड़े रहनसे शरीरको आराम मिलता है, परन्तु वह आराम आराम नहीं है। वास्तवमें वह आराम दुःखदायी है ॥ १४५ ॥
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