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त्रैवर्णिकाचार।
वान रक्षक है । पुंसवन, सीमंत, चौल, उपनयन, गभीधान और प्रमोद इन क्रियाओंके समय नान्दी मंगल अवश्य करे ॥ ८०-८३ ॥
गर्भणीके धर्म । भूम्यां चैवोचनीचाय मार हावरोहणे । नदोपतरणं चैव शकटारोहणं तथा ॥ ८४ ॥ उग्रौषधं तथा क्षारं मैयुनं भारवाहनम् ।
कृते पुंसवने चैव गर्भिगो परिव नयेत् ॥ ८५ ॥ पांचवें महीने में पुंसवन क्रिया हो चुकने के बाद गर्भवती स्त्री ऊंची नीची जमीनपर न चढ़ेउतरे, बहती हुई नदीको पार न करे, गाडापर न चढ़े, तेज औषधि सेवन न करे, खारे पदार्थ न खावे, मैथुन सेवन न करे, और बोझा न उठावे ॥ ८४-८५ ॥ .
पतिके धर्म। पुंसो भार्या गर्भिणी यस्य चासौ । सूनोचौलं क्षौरकर्मात्मनश्च ।।
गेहारम्भं स्तम्भसंस्थापनं च । वृद्धिस्थानं दूरयात्रां न कुर्यात् ॥ ८६॥ __ जिस पुरुषकी स्त्री गर्भवती हो वह अपने पुत्रका चौलकर्म न करे, आप स्वयं हजामत न बनबाबे, नया घर न बंधबाबे, स्तंभ (खंभा) खड़ा न करे और बहुत लंबा सफर न करे ॥ ८६ ॥
शवस्य दाहनं तस्य दहनं सिन्धुदर्शनम् । पर्वतारोहणं चैव न कुर्याद्गर्भिणीपतिः ॥ ८७ ॥ मासात्तु पश्चमादूर्ध्व तस्याः सङ्गं विवर्जयेत् । ऋतुद्रये व्यतीते तु न कुर्यान्मौजीबन्धनम् ॥ ८८ ॥ गर्भिण्यामपि भार्यायां वीर्यपातं विवजेयेत् । अष्ट मासात्परं चैव न कुर्याच्छ्राद्धभोजनम् ॥ ८९ ॥ क्षौरं चौमूं मौञ्जिबन्धं वर्जयेद्गर्भिणीपतिः ।
भिन्नभार्यासुतस्येह न दोषश्चौलकर्मणि ॥ ९० ॥ गर्भिणी स्त्रीका पति मुर्देको कन्धेपर न ले जाय, उसको अपने हाथसे न जलावे, समुद्र न देखे, पर्वतपर न चढ़े, पांचवें महीनेके बाद गर्भिणी स्त्रीसे समागम न करे, चार महीने हो चुकनेपर अपने पुत्रका उपनयन संस्कार न करे, गर्भवती स्त्रामें किसी भी तरह वीर्यपात न करे, आठवें महीनेके बाद श्राद्धका भाजन न करे, और क्षौर, चौल और उपनयनकर्म न करे। अपनी दूसरी स्त्रीके पुत्रका चौलकर्म करनेमें दोष नहीं है। सारांश-जिस स्त्रीके पहलेका लड़का हो और वह गर्भवती हो तो उसका पति उस पहले लड़केका चौलसंस्कार आदि न करे । यदि उसके दूसरी स्त्री हो, जिसके कि गर्भ न हो, उसके पुत्रका वह चौलकर्म करे तो कोई दोष नहीं है ॥ ८७-९० ॥
प्रीति, सुप्रीति और पियोद्भव क्रियाएं । पुत्रजन्मनि साते प्रीतिसुप्रीतिके क्रिये । प्रियोद्भवश्च सोत्साहः कर्तव्यो जातकर्मणि ॥९१ ॥