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त्रैवर्णिकाचार |
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मंत्रका भाव यह है कि मेरे शरीरका अधिष्ठाता देव मुझे बल प्रदान करे । इससे मालूम पड़ता है कि स्त्री-पुरुषोंके शरीर व सम्पूर्ण अंग उपांगों के अधिष्ठाता देव होते हैं । स्त्रीसमागमके समय पढ़ने योग्य मंत्रोंसे भी यही मालूम पड़ता है । ये मंत्र ग्रंथकर्त्ता के जन्म से पहले लिखे हुए अन्य ग्रन्थोंमें भी पाये जाते हैं । ऋषिप्रणीत आगमसे भी निश्चित है कि हरएक स्त्री पुरुषके शरीर आदि अंगके अधिष्ठाता देव हुआ करते हैं । ये देव प्रायः व्यन्तर जातिके हैं। इनका हर तरहका स्वभाव होता है । अपने २ कमोंदयसे ये भिन्न २ स्वभाव वाले होते हैं। कितने ही लोग ऐसी बातोंके सम्बन्ध में एक भारी तमूल उत्पन्न कर देते हैं । कई स्थानोंमें बतलाया गया है कि अच्छेसे अच्छे और बुरेसे बुरे स्थानोंमें रहनेका उनका स्वभाव है। अच्छीसे अच्छी और बुरीसे बुरी चीजोंसे प्रेम करना भी उनके लिये स्वभाविक है । लेकिन सबका एकसा स्वभाव नहीं होता है । किसीका कैसा ही है तो किसीका कैसा ही । जैसे किन्हीं देवोंका नियोग है कि वे सूर्य-चंद्रमा के विमानोंके वाहन बन कर उनको खींचते हैं । उन देवोंको उनके कर्मोंका फल उसी प्रकार से प्राप्त होता है । इसी प्रकार व्यन्तर आदि देवोंका नियोग है कि कोई स्त्री पुरुषोंके शरी आदि अंगो में निवास करते हैं; और कोई कहीं अन्यत्र निवास करते हैं । सारे मध्यलोक में सब जगह उनका निवास हैं । उनके अनेक प्रकारके नियोग हैं। वे मनुष्योंके कर्मोदयके अनुसार उनके सहायक भी होते हैं । यदि कोई यह शंका उठावे कि जब वे मनुष्योंके सहायक हैं तो हर समय उनकी सहायतामें उन्हें तत्पर रहना चाहिए और कभी किसीका अनिष्ट नहीं होना चाहिए । इसका उत्तर यह है कि इष्ट अनिष्टकी प्राप्ति अपने अपने पहले किये हुए कम के अनुसार होती है । उसमें अनेक बाह्य कारण भी अवलंबन होते हैं । उनकी कोई गिनती नहीं है । अतः संभव है कि वे मनुष्योंके खास खास कार्यों में सहायक होते हों ॥ ४४-४५ ॥
सन्तुष्टो भार्यया भर्ता भर्त्रा भार्या तथैव च ।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् ॥ ४६ ॥ इच्छापूर्वं भवेद्यावदुभयोः कामयुक्तयोः ।
रेतः सिञ्चेत्ततो योन्यां कस्माद्दर्भ बिभर्ति सा ॥ ४७ ॥
जिस स्त्रीसे पुरुष और जिस पुरुषसे स्त्री सन्तुष्ट होती है उसके कुलमें निरन्तर कल्याण की वृद्धि होती रहती है । कामयुक्त स्त्री और पुरुष दोनोंके वीर्यका जब एक साथ क्षरण होता है तब उससे वह स्त्री गर्भ धारण करती है ॥ ४६-४७ ॥
ऋतुकालोपगामी तु प्राप्नोति परमां गतिम् ।
सत्कुलः प्रभवेत्पुत्रः पितॄणां स्वर्गो मतः ॥ ४८ ॥
इस तरह जो पुरुष ऋतु- समय में स्त्रीसंगम करता है वह उत्तम गतिको प्राप्त होता है; और उसके उत्तम कुलीन तथा अपने मातापिताओंको स्वर्ग प्राप्त करा देनेवाला पुत्र होता है ॥ ४८ ॥
ऋतुस्नातां तु यो भार्या सन्निधौ नोपयच्छति । घोरायां भ्रूणहत्यायां पितृभिः सह मज्जति ॥ ४९ ॥