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त्रैवर्णिकाचार ।
वेदिका जिनागारे काष्ठनिर्मित पीठयोः । दम्पती तौ च संस्कृत्य भूषणैरुपवेशयेत् ।। ५६ ।। अग्रे स्वस्तिकमालेख्यं चन्दनैस्तण्डुलैः पुरः । पूर्ववत्कलशं रम्यं स्थापयेन्मन्त्रपूर्वकम् ॥ ५७ ॥ जिनेन्द्रसिद्धसूरी व पूजयेद्भक्तितः परान् । बहुधा धूपदीपैश्च पक्कान्नः सत्फलैरपि ॥ ५८ ॥ यक्षीयक्षादिदेवानां पूर्णाहुतिमतः परम् । आचार्यः स्वकरे धृत्वा कल्याणकलशं वरम् ॥ ५९ ॥ पुण्याहवाचनै रम्यैर्गर्भिणीं तां प्रसिञ्चयेत् । शान्तिभक्तिं ततश्वोक्त्वा देवान् सर्वान् विसर्जयेत् ॥ ६० ॥
पहिले उन दोनों पति-पत्नियोंको जेवर आदिसे भूषित कर जिन मन्दिरमें वेदी - के सामने लकड़ीके पाटोंपर बैठावे | उनके सामने गन्ध और चावलोंका सांथिया बनावे । उसके ऊपर मंत्रका उच्चारण कर पहलेकी तरह एक सुन्दर कलश धरे । फिर अर्हन्त, सिद्ध, आचार्योंकी बड़ी भक्ति भावसे नाना प्रकारके दीप, धूप, नैवेद्य, फल आदि अष्टद्रव्योंसे पूजा करे | बाद यक्षी यक्ष आदि देवतोंको पूर्णाहुति देवे । पश्चात् गृहस्थाचार्य उस कल्याणकारी कलशको हाथमें लेकर पुण्याहवचनों द्वारा उस गर्भिणीका अभिषेक करे - उसपर जलधारा छोड़े । तदनन्तर शान्तिपाठ पढ़कर सब देवोंका विसर्जन करे ॥ ५६-६०॥ ततो गन्धोदकै रम्यैर्गर्भिणी स्वोदरं स्पृशेत् । कलिकुण्डादि सद्यन्त्रं रक्षार्थ बन्धयेद्गले ॥ ६१ ॥ सौभाग्यवत्यः सन्नार्यश्वानादिना प्रतोषयेत् । सुप्रमोदश्च सर्वेषां जातीनां समुत्पादयेत् ॥ ६२ ॥
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पश्चात् वह गर्भिणी स्त्री गन्धोदक लेकर अपने उदरपर लगावे और अपने गलेमें गर्भ-रक्षा के अर्थ कलिकुंड आदि यंत्र बांधे। फिर घरका मालिक सौभाग्यवती उत्तम स्त्रियोंको भोजन, कपड़े आदि सन्तुष्ट करे और अपने सम्पूर्ण जातिके लोगों में हर्ष उत्पन्न करे ॥ ६१-६२ ॥
मंत्र — ॐ कं ठं व्हः पः अ सि आउ सा गर्भार्भकं प्रमोदेन परिरक्षत स्वाहा ।
इति होमान्ते गन्धोदकेन प्रसिञ्च्य स्वपत्न्युदरं स्वयं स्पृशेद्भर्ता ।
अर्थात् — होम हो चुकनेके बाद यह मंत्र पढ़कर गन्धोदक सिंचन कर पति अपनी उस गर्भिणी स्त्रीके उदरका स्पर्शन करे |
पुंसवन क्रिया ।
सद्गर्भस्याथ पुष्ट्यर्थ क्रियां पुंसवनाभिधाम् ।
कुर्वन्तुं पञ्चमे मासि पुमांसः क्षेममिच्छवः ॥ ६३ ॥