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त्रैवर्णिकाचार। दारिद्यशोकरोगास्तिोषयेद्रेषजादिना ।
स्वस्य यदनिष्टं स्यात्तन्न कुर्यात्परे क्वचित् ॥ १५४ ॥ दरिद्रियों, शोकसे व्याकुल और रोग पीड़ितोंको औषधि आदिके द्वारा सन्तुष्ट करे। जिस कार्यको आप बुरा समझता हो उस कार्यको किसी दूसरेके निमित्त भी न करे ॥१५४ ॥
समीपोक्तौ हासे श्वासे जृम्भे काशे क्षुते तथा ।
धूमधूलिप्रवृत्तौ च छादयेद्वाससाऽऽननम् ॥ १५५ ॥ दूसरेके अत्यन्त समीप खड़े रहकर बातचीत करते समय, हँसते समय, सांस लेते समय, जभाई लेते समय और छींक लेते समय कपड़ेसे अपना मुंह ढाँक ले । तथा घुएंमें जाना हो या जहाँपर धूल-गर्दा उड़ रहा हो वहाँ जाना हो तो भी अपना मुँह ढाँक ले ॥ १५५ ।।
कूपकण्ठे च वल्मीके चोरवेश्यासुराशिनाम् ।
सन्निधौ मार्गमध्ये तु न स्वपेत्तु जलाशये ॥ १५६ ॥ कुएके किनारे ( पार ) पर, साँप, चूहे आदिके बिलोंपर, चोर, वेश्या और मद्य पीनेवाले पुरुषोंके घरपर, रास्तेके बीचमें तथा तालाब आदि जलके स्थानोंमें न सोवे-निद्रा न लेवे ॥ १५६ ॥
नैको मार्गे व्रजेकः स्वपेत्क्षेत्रे शवान्तिके ।
अविज्ञातोदके नैव प्रविशेद्वा गिरौ न हि ॥ १५७ ॥ अकेला रास्ता न चले, खेतमें अथवा मुर्देके पास अकेला न सोवे, अपरिचित कुआ, नदी, तालाब आदिमें अकेला न घुसे और पर्वतपर अकेला न चढ़े ॥ १५७ ॥
दातारं पितृबुद्ध्या च सेवेत् क्षेमहेतवे ।
पठितान्यपि शास्त्राणि पुनः पुनः प्रचिन्तयेत् ।। १५८ ॥ अपने सुख और फायदेके लिए जो अपनेको खाने-कमानेको रुपया पैसा देता हो उसकी पिता-बुद्धिसे सेवा करे-उसे पिताके तुल्य समझे । पढ़े हुए शास्त्रोंका बारबार चिन्तवन-मनन करे ॥ १५८ ॥
सूक्ष्मवस्तु तथा सूर्य नैकदृष्टया विलोकयेत ।
पादत्राणं विना मार्गे गच्छन्न हि सुधार्मिकः ॥ १५९ ॥ अत्यन्त बारीक वस्तु तथा सूर्यको एक दृष्टिसे न देखे । जूता पहिने बिना रास्ता न चले ॥१५९॥
मूखैः सह वदेनैव नोल्लङ्घयेद्गुरोर्वचः।
दुर्वाक्यं यदि वा मूदत्तं तत्सहेत स्वयम् ॥ १६० ॥ __ मूर्ख पुरुषोंके साथ बातचीत न करे, पिता आदि बड़ोंके वचनोंका उल्लंघन न करें; और यदि मूर्ख आदमी अपनेको कटु वचन भी कहे तो उन्हें शान्तिके साथ सह ले ॥ १६० ॥
व्यवहाराद्विवादे वा कालुष्यं नावहेद्धृदि । नाकारणं हसेदास्यं नासारन्ध्र न घषयेत् ॥ १६१॥