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सोमसेनमट्टारकनिचित
“ ॐ ह्रीँ" इत्यादि पांच मंत्र पढ कर पांच प्राप्णाहुति देकर भोजन करे ॥ ४ ॥
अन्न-लक्षण ।
पकं शुद्धं कवोष्णं च भोज्यमन्नमनिन्दयन् । देशकालानुसारेण यथेष्टं भुज्यते वरम् ।। १७९ ।।
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देश कालका विचार कर अपनी रुचिके अनुसार भोजनसे ग्लानि न करता हुआ अच्छा सीझा या सिका हुआ कुछ कुछ गर्म और निर्दोष भोजन करे ॥ १७९ ॥
अन्न भक्षण और पात्र - स्पर्श ।
वामहस्तेन गृण्हीयाद्भुंजानः पात्रपार्श्वकम् ।
दक्षिणेन स्वहस्तेन भुञ्जीतानं विशोध्य च ॥ १८० ॥
भोजन करनेवाला श्रावक बायें हाथसे थालको पकड़ ले और आंखों से देख-भालकर दाहिने हाथ से भोजन जीमें ॥ १८० ॥
जलपान ।
वामेन जलपात्रं तु धृत्वा हस्तेन दक्षिणे । ईषदाधारमादाय पिबेनीरं शनैः शनैः ॥ १८९ ॥ आदौ पीतं हरेद्वहि मध्ये पीतं रसायनम् । भोजनान्ते च यत्पीतं तज्जलं विषवद्भवेत् ॥ १८२ ॥
बायें हाथ से लोटे वगैरहको पकड़कर दाहिने हाथसे उस लोटेके नीचे कुछ सहारा लगाकर धीरे धीरे जल पीवे । भोजनके आदिमें जल पीनेसे अग्नि मन्द होती है, मध्यमें पनिसे वह जल औषधिका काम देता है और अन्तमें पीया हुआ जल विषके मानिंद होता है ॥ १८१--१८२ ॥
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शत और उष्ण अन्नके गुण ।
अत्युष्णान्नं बलं हन्यादतिशीतं तु दुर्जरम् । तस्मात्कवोष्णं भुञ्जीत विषमासनवर्जितः ॥
१८३ ॥
अत्यन्त गर्म भोजन बलका नाश करता है-निर्बल बना देता है और अत्यन्त ठंडा भोजन अजीर्णता उत्पन्न करता है वह पचता नहीं । इस लिए कुछ कुछ गर्म भोजन करे और भोजन करते समय विषम आसन से न बैठे ॥ १८३ ॥