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- त्रैवर्णिकाचार।
मक्खनमें भी हर समय दो मुहूर्तके बाद प्राणियों के समूहके समूह उत्पन्न होते रहते हैं। भावाथ-दही मथकर मक्खन निकाल लेनेके दो मुहूर्त बाद उसमें अनन्तजीव उत्पन्न हो जाते हैं और फिर जब तक उसे गर्म नहीं कर लेते तब तक हर समयमें उसमें अनन्तजीव उत्पन्न होते और मरते रहते हैं । अतः हिंसासे डरनेवाले धर्मात्माओंको मक्खन कभी नहीं खाना चाहिए ॥२०॥
रात्रि-भोजन व जलपान-निषेध । रागिजीववधापायभूयस्त्वात्तद्वदुत्सृजेत् ।
रात्रौ भुक्तिं तथा युञ्ज्यान पानीयमगालितम् ॥ २०१॥ धर्मात्मा पुरुषोंको मद्य-मांसके त्यागकी तरह रात्रिमें भोजन करनेका भी त्याग करना उचित है। क्योंकि दिनमें भोजन करनेकी अपेक्षा रात्रिमें भोजन करनेमें अधिक राग पाया जाता है। जहां राग है वहां हिंसा अवश्य है । दिनकी अपेक्षा रात्रिमें भोजन बनाने खानेसे प्राणियोंका वध भी कई गुना अधिक होता है । रात्रिमें भोजन करनेसे जलोदर आदि अनेक रोग हो जाते हैं । इसी तरह अनछना पानी भी पीने वगैरहके काममें न लेवे । पानी यह पेय द्रव्य है । इसलिए पीने योग्य तेल, घृत, दूध आदि सब पतले पदार्थों को छानकर काममें लेवे ॥ २०१॥
मुहूर्तेऽन्त्ये तथाऽऽऽऽन्हो वल्भाऽनस्तमिताशिनः । गदच्छिदेऽप्याम्रघृताद्युपयोगश्च दुष्यति ॥ २०२ ॥
रात्रि-भोजन-त्यागी पुरुषको दिनके पहले मुहूर्त में-सूर्योदयके हो जाने पर दो घड़ी तक भोजन करना चाहिए और दिनके अन्त्य मुहूर्तमें अर्थात् सूर्यास्तमें दो घड़ी बाकी रह जाने पर भोजन करे; तथा रोगकी शान्तिके लिए आम, चिरोंजी, केला, दालचीनी आदि फल और घी, दूध, गन्नेका रस आदि रसका उपयोग भी दूषित है । भावार्थ-रात्रि-भोजन-त्यागी पुरुष दो घड़ी दिन चढ़े पहले भोजन न करे और शामको जब दो घड़ी दिन रह जाय तब भोजन न करे—उससे पहले पहले भोजन, जल-पान, फल, रस आदिका खाना पीना कर ले । वरना रात्रि-भोजन-त्याग व्रतमें दोष आता है ॥ २०२॥
अहिंसावतरक्षार्थ मूलवतविशुद्धये ।
नक्तं भुक्तिं चतुर्धाऽपि सदा धीरनिधा त्यजेत् ॥ २०३ ॥ बाईस परीषहों और नाना प्रकारके उपसर्गोंसे चल-विचल न होनेवाला तथा जीवोंकी रक्षा करनेमें तत्पर धीर वीर पुरुष, अहिंसा-व्रतकी रक्षाके लिए और मद्य-त्याग आदि आठ मूलगुणों की विशुद्धिके लिए मनं वचन कायसे अन्न, पान, खाद्य, और लेह्य-इन चार प्रकारके आहारका यावज्जीव ( मरणपर्यन्त ) त्याग करे ॥ २०३॥