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सोमसेनभट्टारकविरचित
विना भार्यौ तदाचारो न भवेदगृहमेधिनाम् । दानपूजादिकं कार्यमग्रे सन्ततिसम्भवः ।। १२९ ।।
निर्धन, धर्मात्मा श्रावकके पुत्रको धर्मकी स्थिति बनी रहने के लिए कन्यादान करे । क्योंकि उत्तम स्त्रीके बिना गिरस्तोंका गिरस्ताचार नहीं चल सकता इस लिए आगेको गिरस्ताचारकी सन्तति बराबर चलती रहने के लिए कन्यादान देकर उसका सत्कार करना चाहिए ।
भावार्थ-धर्मात्मा पुरुषों के सहारेही धर्म चलता है इस लिए धर्मकी सन्ततिका व्युच्छेद न होने चाहिए । यदि इस उद्देशसे धर्मकी
पापका कारण नहीं है वह प्रत्युत
देनेके लिए धर्मात्माओं को श्रावकके पुत्रको कन्या देना स्थिति बराबर जारी रहनेके लिए कन्याका दान किया जाय धर्मका कारण ही है । यदि यह अभी प्राय न रखकर काम भोगोंकी वांछासे कन्या दी जाय तो वह अवश्य कुदान है । हमारे यहां जो कन्याओंका विवाह जारी है वह धर्मकी स्थिति बने रहने के अभिप्राय से है । जिनलोगोंका अभिप्राय यह कि माता पिता कन्याओं का विवाह काम भोग सेवन करने के लिए करते हैं वे जैन शास्त्रोंसे अनभिज्ञ हैं और अपने उद्देश्यकी पूर्ति के लिए शास्त्रों के रहस्यको छिपाकर लोगोंको धोखा देते हैं । कन्याका विवाहना धर्म है इस विषयको सूरिवर पं. आशाधरजीने सागारधर्मामृतमें बहुत अच्छी तरह प्रतिपादन किया है उससे इस विषयको अच्छी तरह धर्मके श्रद्धानी पुरुषों को समझ लेना चाहिए ॥ १२८ ॥ १२९ ॥
श्रावकाचारनिष्ठोऽपि दरिद्री कर्मयोगतः । सुवर्णदानमाख्यातं तस्मायाचारहेतवे ।। १३० ॥
यदि कोई श्रावकका पुत्र श्रावकके आचरण में निष्ठ है किन्तु वह कर्मयोगसे दरिद्री है तो ऐसे धर्मात्माको उसके गिरस्ताचारकी स्थिति के लिए सुवर्ण दान देना चाहिए ।
भावार्थ- सुवर्ण दान देने से वह बेफिकर होकर अपने धर्म में दृढ बना रहता है और आगेको 'धर्मकी बढ़वारी प्रभावना आदिके लिए जी जानसे कोशिश करता रहता है और उसका गिरस्ताचार बराबर जारी रहता है इस लिए ऐसोंको सुवर्णदान अवश्य देना चाहिए । धर्मके निमित्त सुवर्णदान करना पाप नहीं है ॥ १३० ॥
निराधाराय निस्स्वाय श्रावकाचाररक्षिणे ।
पूजादानादिकं कर्तुं गृहदानं प्रकीर्तितम् ।। १३१ ॥
जिस श्रावक के पास रहनेको मकान नहीं है, वह इतना निर्धन है कि मकान बनवानेको असमर्थ है किन्तु श्रावकके आचरणोंकी पूरी पूरी रक्षा करता है ऐसे श्रावकको पूजा करने मुनीश्वरों को दान देने आदिके लिए गृह दान देना चाहिए ॥ १३१ ॥