________________
१८८
सोमसेमभट्टारकाविरचित
अतिबालोऽतिवृद्धश्वातिश्यामो ऽतिमतिभ्रमः ।। १५८ ॥ षण्टश्च पश्चिमद्वारी पञ्चभिश्व बहिष्कृतः । देवार्चकश्च निर्माल्यभोक्ता जीवविनाशकः ॥ १५९ ॥ राजद्रोही गुरुद्रोही पूजापीडनकारकः । वाचालोऽतिमृषावादी वक्राङ्गश्चातिवामनः ।। १६० ॥ इत्यादिदुष्टसंसर्ग सन्त्यजेत्पंक्तिभोजने । श्वानसूकरचाण्डालम्लेच्छहिंसकदर्शनम् ॥ १६१ ॥
अब पंक्ति में सामिल न होने योग्य मनुष्योंको बताते हैं-जो विजातीय हो - अपनी जातिका न हो, दुष्ट हो, मैले-कुचैले कपड़े पहने हो, स्नान किये न हो, जिसके शरीरका कोईसा अंग छिन्न भिन्न हो गया हो, जो निन्दक हो, जिसको सांस चढ़ रहा हो, खांसी चलती हो, जिसके शरीर में फोड़ा फुंसी वगैरहके घाव हो रहे हों, जो कोढ़ी हो, जिसके पीनसका रोग हो रहा हो, उल्टी होती हो, जो मिथ्यादृष्टि हो, विकारी हो, उन्मत्त हो, ठट्टेबाज हो, सन्तोषी न हो, पाखंडी हो, शरीरमें कुछ न कुछ चिन्ह रखनेवाला लिंगी (ढौंगी ) हो, वितंडा करनेवाला हो, सातों व्यसनों का सेवन करनेवाला हो, दुराचारी हो, दुष्ट आशयवाला हो, चारों कषायोंसे युक्त हो, दीन हो, जिसके शरीरको देखकर ग्लानी आती हो, जो अभिमानी हो, अत्यन्तही बालक हो, अत्यन्त बूढ़ा हो, अत्यन्त काला हो, जिसकी बुद्धिमें अत्यन्त भ्रम ( विकार ) हो गया हो, जो नपुंसक हो, जिसकी गुदा बह रही हो, पंचोंने जिसको बहिष्कृत कर दिया हो, जिसके जिनपूजाकी आजीविका हो - देवपूजा करके उदरनिर्वाह करता हो, जो निर्माल्य-भोजी हो, जीवोंकी हिंसा करनेवाला हो, राजद्रोही हो, गुरुद्रोही हो, पूजादि धर्मकार्यों में विघ्न पाड़नेवाला हो, अत्यन्त वाचाल हो, अत्यन्त झूठ बोलनेवाला हो, जिसका शरीर टेढ़ामेढ़ा हो और बिल्कुल बौना हो, इत्यादि तरहके मनुष्योंको भोजनमें सामिल न करे तथा भोजन के समय, कुत्ते, सूकर, चांडाल, म्लेच्छ, हिंसक आदिको आँखसे न देखे ॥१५५-१६१॥
प्राङ्मुखस्तु समश्नीयात्प्रतीच्यां वा यथासुखम् । उत्तरे धर्मकृत्येषु दक्षिणे तु विवर्जयेत् ॥ १६२ ॥
आयुष्यं प्राङ्मुखो भुंक्ते यशस्वी चोत्तरामुखः । श्रीकामः पश्चिमे भुंक्ते जातु नो दक्षिणामुखः ॥ १६३ ॥
पूर्व दिशा की ओर मुख कर भोजन करे अथवा पश्चिमकी ओर मुख कर भोजन करे | जैसा दिखे वैसा करे । तथा धार्मिक कामों में उत्तरकी ओर मुख कर भोजन करे, किन्तु भोजन के समय दक्षिणकी ओर मुख न करे । पूर्वकी ओर मुखकर भोजन करनेसे आयु बढ़ती है, उत्तरकी ओर मुखकर भोजन करनेसे यश फैलता है और पश्चिमकी और मुखकर भोजन करनेसे लक्ष्मीका चा होता है - उसे लक्ष्मी की प्राप्ति होती है तथा दक्षिणकी ओर मुखकर भोजन करनेसे कुछ भी नहीं मिलता ॥ १६२-१६३॥