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ઉદ્દેદ
सोमसेनभट्टारकविचित
हे जिनपते ! यह आपका शरीर अत्यन्त शान्त है, पापोंसे रहित निर्मल है, और प्रभामण्डलसे अलंकृत है । यह आपकी दिव्यध्वनि कानोंको अपनी ओर आकर्षण करनेवाली है, और स्याद्वाद के स्वरूपको हाथमें रक्खे हुए आवलेकी तरह दिखलाती है । तथा आपका यह निर्मल आचरण सारे संसारी जनोंका उपकार करनेवाला है। इस लिए शास्त्रोंके जानकर और और मनुष्य भी, संसारके सन्तापका उच्छेद करनेके लिए अकेले आपकी शरण आते हैं ॥ ५४ ॥
स्वामिन्नद्य विनिर्गतोऽस्मि जननीगर्भान्धकूपोदरादोद्घाटितदृष्टिरस्मि फलवज्जन्माऽस्मि चाद्य स्फुटम् । त्वामद्राक्षमहं यदक्षयपदानन्दाय लोकत्रयीनेत्रेन्दीवरकाननेन्दुममृतस्यन्दिनमाचन्द्रकम् ॥ ५५ ॥
हे स्वामिन् ! तीन लोकवर्ती मनुष्योंके नेत्र-कमल-वन के विकास करने को चन्द्रमाके समान और अमृत बरसानेवाली प्रभायुक्त चंद्रिकारूप आपका जब मैं अक्षय सुखकी प्राप्तिके लिए दर्शन करता हूं तब मुझे ऐसा जान पड़ता है कि मानों मैं आज माता के गर्भरूपी अन्धकारमय कुए से निकलकर बाहर आया हूं, आज मैंने अपने नेत्र खोले हैं और आज मेरा जन्म सलफ हुआ है ॥ ५५ ॥
दृष्टं धाम रसायनस्य महतां दृष्टं निधीनां पदं
दृष्टं सिद्धिरसस्य स सदनं दृष्टं तु चिन्तामणेः ।
किं दृष्टैरथवानुषङ्गिकफलैरेभिर्मयाऽद्य ध्रुवं
दृष्टं मुक्तिविवाहमङ्गलमिदं दृष्टे जिनश्रीगृहे ॥ ५६ ॥
हे देव ! मैने कठिन से कठिन रोगोंको नष्ट-भ्रष्ट कर देनेवाला रसायन गृह देखा, भारी से भारी निधियोंका स्थान देखा, सिद्धिरसका महल देखा, चिन्तामणिका उत्तम स्थान देखा किन्तु इन आनुषंगिक फलोंको देनेवाली चीजोंके देखनेसे प्रयोजन ही क्या है ? प्रयोजन मूल तो यह है कि आज मैने श्री जिनमन्दिर देखा है सो ऐसा भासता है कि मुक्तिरूपी स्त्रीका विवाह मंगल देख लिया है ॥ ५६ ॥ afe प्रभुता विराजमाने
नेत्रे इतः सफलतां जगतामधीश ।
चित्तं प्रसन्नमभवन्मम शुद्धबुद्धं तस्मात्वदीयमघहारि च दर्शनं स्तात् ॥ ५७ ॥
हे तीन जगतके अधिपति जिन ! अपने प्रभुत्वरूपसे विराजमान हुए आपको देख लेनेपर ये
मेरे दोनों नेत्र सफल हो जाते है और मेरा मन शुद्ध और ज्ञानरूप हो कर अत्यन्त प्रसन्न हो जाता है। इसलिए पापको अड़मूलसे खोद कर फेंक देनेवाला आपका दर्शन मुझे निरन्तर होता रहे ॥ ५७ ॥