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त्रैवर्णिकाचार। .
क्षेत्रपाल और पद्मावती आदि शासन देवतोंका सत्कार करे ॥ ८२ ॥
ततो मण्डपसद्देशं समागत्य श्रुतं मुनिम् ।
भक्त्या नत्वा समाधानं पृच्छेदेहादिसम्भवम् ॥८३ ॥ पश्चात् मंडपमें आकर भक्तिपूर्वक शास्त्र और मुनिको नमस्कार करे तथा मुनिमहाराजकी शारीरिक कुशलता पूछे ॥ ८३ ॥
नित्य व्रत ग्रहण। दिग्देशानर्थदण्डादि रसं तैलघृतादिकम् ॥
नित्यव्रतं तु गृहीयाद्गुरोरग्रे सुखप्रदम् ।। ८४ ॥ पश्चात् श्रीगुरुके समक्ष दिग्विरति, देशविरति अनर्थदण्डविरति वगैरह और तेल घी वगैरह रसका त्याग यह नित्य व्रत ग्रहण करे । भावार्थ-मैं आज इस देशसे बाहर नहीं जाऊंगा इस दिशाकी और नहीं जाऊगा, विना प्रयोजनके कोई भी कार्य नहीं करूंगा. आज तेल नहीं खाऊंगा, आज घी नहीं खाऊगा, आज गुड-शक्कर नहीं खाऊगा, आज नमक नहीं खाऊंगा इत्यादि नियम ग्रहण करे ॥ ८४ ॥
व्रतग्रहणकामाहात्म्य । दृक्पूतमपि यष्टारमहतोऽभ्युदयश्रियः ।
श्रयन्त्यहम्पूर्विकया किं पुनर्प्रतभूषितम् ॥ ८५ ॥ . श्री अर्हन्त देवकी पूजा करनेवाले केवल व्रत रहित सम्यग्दर्शनसे विशुद्ध पुरुषोंका, बड़प्पन, आज्ञा, ऐश्वर्य, बल, परिवार भोगोपभोगकी सामग्रियां आदि सम्पदाएं पहले मैं प्राप्त होऊ इस प्रकार एक दूसरीसे ईर्ष्या करती हुई बहुत शीघ्र आश्रय ग्रहण करती हैं। तो फिर जो सम्यग्दर्शनसे पवित्र हैं और अहिंसा सत्य आदि व्रतोंसे विभूषित हैं ऐसे श्री जिन देवकी पूजा करनेवाले श्रावकोंका वे संपदाएं आश्रय ले इसमें क्या आश्चर्य है-कुछ भी नहीं । भावार्थ-ये सम्पदाएं बतोंसे विभूषित पुरुषोंका विशेष रीतिसे आश्रय ग्रहण करती हैं ॥ ८५ ॥
... गुरु आदिको नमस्कार करनेका प्रकार । नमोऽस्तु गुरवे कुर्याद्वन्दनां ब्रह्मचारिणे ।
इच्छाकारं सर्मिभ्यो वन्दामीत्यर्जिकादिषु ।। ८६ ॥ गुरुओं को “नमोऽस्तु" ब्रह्मचारियोंको “वंदना" साधर्मियोंको “इच्छाकार" और अर्जिकाओंको " बन्दामि " करे ॥ ८६ ॥