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त्रैवर्णिकाचार |
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क्रिया करे । इसके बाद अन्य बाकी बची हुई क्रियाको करनेके लिए उसी आसन पर पुनः बैठे ॥ १२७ ॥ १२८॥
सव्यजानुपुरो दर्भयुक्तहस्तद्वयस्तथा । वामहस्तमधः कृत्वा मुकुलीकृत्य दक्षिणम् ॥ १२९ ॥ त्रिरुच्चार्य ततो मंत्रं प्राणायामोदितं पुरा । आचमनं पुनः कुर्यान्मुक्तिमार्गप्रदायकम् ॥ १३० ॥ जिनेन्द्रादिमहर्षीणां दर्भर्वोदकैस्तथा । वृषभादिसुपितॄणां तिलमिश्रोदकैः परम् ॥ १३१ ॥ जयादिदेवतानां च तर्पणं चाक्षतोदकैः ।
एवं विधाय सन्ध्यायाः कर्म सान्ध्यं समापयेत् ॥ १३२ ॥ दाहिनी जंघाके ऊपर बायें हाथको नीचे और दाहिने हाथको ऊपर रक्खे, दोनोंमें दर्भ ले। इसके बाद पहले प्राणायाम करते समय कहे गये मंत्रका तीन बार उच्चारण कर पुन: उस मोक्षमार्गका प्रदान करनेवाले आचमनको करे । तथा दर्भ, दूब और जलसे जिनेन्द्रादि महर्षियोंका, तिल-मिश्र जलसे वृषभादि पितरोंका, अक्षत और जलसे जयादि देवतोंका तर्पण करे । इस तरह प्रातःकाल-सम्बन्धी सन्ध्या कर सन्ध्याविधि पूर्ण करे ॥ १२९॥ १३२॥
शौचान्ते रोगपीडान्ते मृतकानुगमे तथा ।
अस्पृश्यस्पर्शने चैव आचमादिक्रियां चरेत् ॥ १३३ ॥ शौच कर चुकने पर, रोगके दूर होने पर, मृतकके साथ स्मशान जानेपर और अस्पृश्य लोगोंका स्पर्श होजानेपर आचमनादि क्रियाओंको करे ॥ १३३ ॥
स्नानतर्पणके त्यक्त्वा शेषां चापि चरेक्रियाम् ।
सर्वां मध्याह्नसायाह्नसन्ध्ययोद्विजसत्तमः ॥१३४ ॥ त्रैवर्णिक श्रावक, दो पहरको और सायंकालको स्नान और तर्पणको छोड़कर बाकीकी सब क्रियाओंको करे ॥ १३४ ॥
---- संध्या करनेका समय। सूर्योदयाच्च प्रागेव प्रातःसन्ध्यां समापयेत् । तारकादर्शनात्सर्व सन्ध्यां सायाह्निकी चरेत् ॥ १३५ ॥