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तत आचम्य च प्राणायाम कुर्यात क्तः स्तुतिम् ।
अनेरावाहनं मुस्वा पूजयेदष्टधार्वनैः १२८ ॥ इसके बाद आचमन कर प्राणायाम करे । पश्चात् स्तुति पढ़े और अमिका आवाहन कर जलादि अष्ट द्रव्योंसे उसकी पूजा करे ।। १२८ ॥
गार्हपत्यानिमादाय ज्वालयेत्तूनरेऽनलम् ।
उत्तराग्निं तु संगृह्य ज्वालयद्दक्षिणेऽनलम् ॥ १२९॥ पश्चात् गार्हपत्य बीचले कुंडसे अग्नि लेकर उत्तरकी ओरके कुंडमें अग्नि जलावे । और उत्तर कुंडसे अग्नि लेकर दक्षिण कुंडमें जलावे ॥ १२९ ॥
मेखलासु तिथिदेवान् ग्रहानिन्द्राँस्ततः क्रमात् ।
पूजयेदुपरिष्टात्तु भक्त्या युक्त्या समन्त्रतः ॥ १३० ॥ इसके बाद कुंडोंकी मेखलाओं पर सिथिदेव, नवगृह और इंद्रोंकी भक्तिपूर्वक मंत्रोचारणके साथ साथ युक्तिसे पूजा करे ॥ १३०॥
दिक्पालान् परितः कुण्डं वेदिकायां तु तर्पयेत् । कृतेषु लघुपीठेषु यथास्वं स्वदिशास्वपि ॥ १३१ ॥ . शाल्योदनं वृतं पकं नैवेचं स्सपायसम् ।
सिञ्चत्क्षीरैघृतैर्मिश्रं दुग्धकेक्षुरसान्वितम् ॥ १३२ ॥ कुंडके चारों ओर की वेदिकाके ऊपर जो आठों दिशाओंमें छोटे छोटे आठ पीठ बनाये गये थे उनपर यथायोग्य दिकशालाका तर्पण करे । चावल, घी, पका हुआ अन्न, गन्नेका रस, खीर और धीसे मिले हुए दूध और इक्षु-रस संयुक्त नैवेद्यका सिंचन करे अर्थात् इन सबको मिलाकर चढ़ावे ॥ १३१ ॥ ॥ ५३२॥
सुक और सुवाका लक्षण । इन्धनं क्षीरवृक्षस्य स्रुक स्रुवं चन्दनं तथा ।
अश्वत्थस्याप्यभावेऽस्य तत्पत्रं वा नियोजयेत् ॥ १३३ ॥ होमद्रव्यको अग्निमें जलानेके लिए बड़की लकड़ीका चाटू बनाबे और घृतको अग्निमें डालनेके लिए चन्दनका छोटा । चाटू (चम्मच ) बनवावे । यदि बड़की लकड़ी और चन्दनकी लकडी न मिले तो पीपलकी लकड़ीके ये दोनों पात्र बनवावे । अथवा उन दोनों पात्रके स्थानों में पीपलके पत्तोंको काममें लेवे ॥ १३३ ॥