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सोमसेनभट्टारकविरंचित
जिस गांव में एक भी अग्निहोत्री द्विज रहता हो उस गावमें अतिवृष्टि, अवृष्टि आदि सात तरह के भय नहीं होते । शाकिनी, भूत, राक्षस, व्याघ्र, सिंह, हाथी आदि कभी किसीको पीड़ा नहीं पहुंचाते । किसीकी अपमृत्म नहीं होती । सर्पका और व्याधिका कुछ भय नहीं रहता । प्रजा, राजा, प्रधान वगैरह सब पुरुष हमेशा सुखसे निवास करते हैं । वहांकी जनता धनधान्यसे परिपूर्ण हराभरी रहती है। गायें सबको संतोष पुष्टि देनेवाली होती हैं । और जिस नगरमें बहुत सारे अग्रिहोत्री ब्राह्मण रहते हैं उस नगर के देशमें कहीं पर भी आधि-व्याधिकी पीड़ा नहीं होती। ऐसे अग्निहोत्री ब्राह्मणों के लिए राजाओंको यथेष्ठ गायें, ग्राम, जमीन घर, बर्तन, रत्न, गहने, कपड़े आदि वस्तुओंका दान देना चाहिए । १८६ ॥ १९० ॥
श्रीजिनपूजन
जिनबिम्बमथानीय पूर्व देवगृहे न्यसेत् ।
सिद्धादीनां तु यन्त्राणि स्वस्वस्थाने निवेशयेत् ॥ १९९ ॥
जिनेन्द्रसदनद्वारे क्षेत्रपालान् समर्चयेत् । मध्यदेशे तु सदेवान् गन्धर्वस्तत्र दक्षिणे ॥ १९२ ॥
किन्नरान्वामभागे च भूतप्रेताँश्च दक्षिणे । शेषाँश्च बलिदानेन तर्पयेद्वामभागतः ।। १९३ ॥ ब्रह्मभागे तु ब्रह्माणं अष्टौ दिशाधिपान्बहिः । अर्घ्यपाद्ययज्ञभागरमृतैः प्राक्प्रतर्पयेत् ॥ १९४ ॥
होम हो चुकनेके बाद, पहले जिनबिंत्रको लाकर जिनमन्दिरमें विराजमान कर दे और सिद्ध यंत्रादिकों को भी अपने अपने स्थान पर विराजमान कर दे । जिनमन्दिरके द्वार पर स्थापित क्षेत्रपालों का उनके योग्य पूजा सत्कार करे । मन्दिरके मध्य देशमें जिनदेवकी पूजा करे | उनके दाहिनी ओर गन्धर्वोंका, बाईं ओर किन्नरोंका तथा दाहिनी ओर भूत-प्रेतोंका योग्य पूज्ञा सत्कार करे । तथा बाईं ओर सम्पूर्ण देवोंको बलिदान देकर तृप्त करे । ब्रह्मभाग पर ब्रह्मदेव की पूजा करे । मन्दिरके बाहर आठ दिशाओंमें आठ दिक्पालोंको अर्घ्य, पाय, यज्ञभाग और जलसे पूजा प्रारंभ करनेके पहले ही तृप्त करे ॥ १९९ ॥ १९४ ॥
ग्रहबलि ।
गृहाणे ततो गत्वा मध्यपीठे सुधाशिनाम् । तत्तद्दिनाधिपस्यापि शान्त्यर्थं बलिमर्पयेत् ॥ १९५ ॥