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सोमसेनमहाकविरचित
दर्भासनमें बैठकर यह पढ़ें। ओं ही इत्यादि मंत्र पढ़कर कर्मरूपी ईधन भस्म करे ।
लवं यूं स दह दह कर्म फलं दह दह दुःखे घे घे स्वाहा ॥
__ इत्युच्चार्य कर्मेधनानि दग्धानीति स्मरेत् ॥ २८ ॥ ओं -हाँ इत्यादि मंत्रोच्चारण कर कर्मे धन जल गये ऐसा चिन्तवन करें। ॐ ही अर्ह श्रीजिनप्रभुजिनाय कर्मभस्मविधूननं कुरु कुरु स्वाहा ॥ इत्युच्चार्य तद्भस्मानि विधूतानि स्मरेत् ।। २९ ॥
“ओं ही अर्ह " इस मंत्रका उच्चारण जले हुए कर्मरूपी इंधनकी भस्म उड़ गई ऐसा चिन्तवन करे ॥ २९ ॥
प्लावनम् । ततः पश्चगुरुमुद्राग्रे असि आ उ सा इत्येतान् तदुपरि झं वं व्हः पः हः इत्यमृतबीजानि निक्षिप्य तन्मुद्रां शिरस्यधोमुखमुध्दृत्य-ॐ अमृते अमृतोद्भवे अमृतवार्षणि अमृतं स्रावय स्रावय सं सं क्ली क्ली ब्लू ब्लू द्राँ द्राँ द्राद्री द्रावय द्रावय स्वाहाइत्युच्चाये ततः स्रवत्पीयूषधाराभिरात्मानं स्त्रापयेत् ॥अभिषवणम्॥३०॥
इसके बाद पंचगुरु मुद्रा बनावे उसके अग्रभागमें असि आ उ सा इन पांच अक्षरोंको रखकर ये पांच अक्षर रख लिये गये ऐसी कल्पना कर अक्षरोंके ऊपर क्रमसे झं वं व्हः पः हः इन अमृत बीजोंको रखकर उनके ऊपर ये पांच अक्षर रख लिये गये ऐसी कल्पना कर उस मुद्राको अपने शिरपर अधोमुख रख कर “ओं अमृते अमृतोद्भवे” इत्यादि मंत्रका उच्चारण कर इसके बाद झरती हुई अमृतधारासे अपनी आत्माको स्नान कराया है ऐसी अपने हृदयमें कल्पना करे । ये अभिषेक मंत्र है ॥ ३०॥
एवं त्रिधा विशुद्धः सन् करन्यासं विदध्यात् ॥ ३१ ॥ हस्तद्वयकनीयस्याद्यङ्गुलीनां यथाक्रममम् ॥
मूले रेखात्रयस्योर्ध्वमग्रे च युगपत्सुधीः ॥१॥ इस तरह अभिषवम विधि तीन वार कर विशुद्ध होकर करन्यास करे-हाथोंपर अर्हन्तदेवकी स्थापना करे ॥ ३१॥