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सोमसेनभट्टारकविरचित
ये पूजयन्ति तान् देवान् तेषां गृहेषु शाश्वती । लक्ष्मीर्वसति गोऽश्वादिमहिषीसर्वसम्पदः || २१४ ॥
जो पुरुष इन देवोंकी पूजा करते हैं उनके घरोंमें हमेशा लक्ष्मीका निवास रहता है और गाय, घोड़े, भैंस आदि सब तरह की सम्पदाएं भी सदा निवास करती हैं ॥ २१४ ॥
इह जन्मनि संक्लेशव्याधयो न कदाचन ।
भवन्ति तस्य देवानां सामर्थ्यात्पुण्यसद्मनि ॥ २१५ ॥
उस पुरुष के पुण्यगृह में उन देवोंके सामर्थ्य से इस जन्ममें कभीभी संक्केश व्याधि आदिक रोग नहीं होते ॥ २१५ ॥
अन्त्ये सन्न्यासमादाय समाधिमरणं भवेत् । स्वर्गमुक्तिप्रदं रम्यमनन्तसुखसागरम् ॥ २१६ ॥
अन्त समय में उसका संन्यास धारण पूर्वक समाधिमरण होता है। जो समाधिमरण स्वर्ग-मोक्षको देनेवाला है और अनन्त सुखका रमणीय खजाना है ॥ २१६ ॥
इत्येवं कथितो जिनेन्द्रवचनादाचारधर्मो मया श्रीभट्टारकसोमसेनगणिना संक्षेपतः सत्क्रियः । देवाराधनहोमनित्यमहसां लक्ष्मीप्रमोदास्पदं
ये कुर्वन्ति नरा नरोत्तमगुणास्ते हो लभन्ते शिवम् || २१७॥
इस तरह पूर्वोक्त रीतिसे मुझ श्रीभट्टारक सोमसेन गणीने जिनेन्द्रके वचनसे कहे हुए देवोंकी आराधना, होम और नित्य पूजोत्सवकी समीचीन क्रियारूप आचार धर्मको कह । जो उत्तम गुण पुरुष इस आचार धर्मका पालन करते हैं वे अनन्त चतुष्टय स्वरूप मोक्षको प्राप्त होते हैं ॥ २१७ ॥
सरस्वत्याः प्रसादेन काव्यं कुर्वन्ति पण्डिताः ।
ततः सैषा समाराध्या भक्त्या शास्त्रे सरस्वती ।। २९८ ॥
सरस्वतीके प्रसादसे पंडितजन काव्यरचना करते हैं इसलिए शास्त्र में उस सरस्वतीकी भक्ति - पूर्व आराधना करनी चाहिए ॥ २९८ ॥