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सोमसेमभट्टारकविरचित
पहले पहल वायुकुमार, भेषकुमार, अशिकुमार, वास्तुदेवता और नागकुमारकी पूजा करे । पश्चात् क्षेत्रपाल, गुरु, पितर और बाकीके देवोंकी उनकी पूजाविधिके अनुसार पूजन करे । तथा अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, और सर्वसाधु तथा श्रुतदेवताकी युक्तिपूर्वक पूजा कर पुण्याहवाचन पढ़े ॥ १२० ॥ १२१ ॥
चक्रत्रयं दक्षिणेऽस्मिन् वामे छत्रत्रयं यजेत् ।
पूर्णकुम्भं पुरोभागे यक्षयक्ष्यौ च पार्श्वयोः ॥ १२२ ॥
जिन भगवान के दक्षिणकी ओर स्थापित चक्रत्रयकी, बाई ओर छत्रत्रयकी, सामने पूर्ण कुंभोंकी और दोनों पसवाड़ों की ओर विराजमान यक्ष, यक्षियोंकी पूजा करे ॥ १२२ ॥
कुण्डस्य पूर्वभागे तु दर्भासनेऽवरे मुखः ।
पद्मासनं समाश्रित्य पूजाद्रव्यं तु विन्यसेत् ॥ १२३ ॥ होमद्रव्यप्रदानाय शिष्यवर्ग नियोजयेत् । मौनं व्रतं समादाय ध्यायेच्च परमेश्वरम् ||
१२४ ॥
होमकुंडकी पूर्वदिशामें रक्खे हुए दर्भके आसनपर पश्चिमकी ओर मुख कर पद्मासन से बैठे और अपने पास में पूजाद्रव्यको रक्खे । होमद्रव्यको देनेके लिए शिष्योंकी न हों तो स्वयं करे ) और मौनव्रत लेकर परमात्माका ध्यान करे || १२३ ॥
नियोजना करे ( शिष्य
१२४ ॥
जिनेंद्रमर्घ्यदानेन परात्मानं च तर्पयेत् । मध्ये कुण्डं सुगन्धेन विलिखेदग्निमण्डलम् ॥ १२५ ॥ सम्पूज्य होमकुण्डं तमपिं सन्धुक्षनेत्परम् । नूतनानिर्भवेद्योग्यो होमसन्धुक्षणे तदा ।। १२६ ।।
जिनेन्द्रको अर्ध देकर उनका तर्पण करे । कुंडके मध्यभागमें सुगन्ध द्रव्यसे अग्निमंडल लिखे । पश्चात् होमकुंडकी पूजा कर उसमें अग्नि जलावे । उस समय होमद्रव्य के जलानेमें ताजा अग्नि टीक रहती है ।। १२५ ।। १२६ ॥
दर्भपूलं पवित्रं तु रक्तवस्त्रेण वेष्टितम् ।
तेन सज्वालयेत्कुण्डं स्वमन्त्रेण ससर्पिषा ॥ १२७॥
शुद्ध दर्भके पूले पर रक्त वस्त्र लपेट कर उससे और घृतसे मंत्रोच्चारण पूर्वक कुण्ड में अभि जलावे ॥ १२७ ॥