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मोमसेनभष्टारकविरचित
त्रिकोणं दक्षिणे कुण्डं कुर्याद्वर्तुलमुसरे।। तत्रादिमेखलायाश्चाप्यवसेयाश्च पूर्ववत् ॥ १११ ॥ भूताब्धिगुणमात्राः स्युर्मेखलाः प्रथमादयः ।.
मात्रायामं तथैतेषां कुण्डानामन्तरं भवेत् ॥ ११२ ॥ उस कुंडके दक्षिणकी ओर एक तिकोन कुण्ड और उत्तरकी ओर एक गोल कुंड बनवावे । पहले कुंडकी तरह इन दोनों कुंडोंके चारों ओर भी तीन तीन मेखलाएँ बनवावे । पहली मेखला पाँच मात्रा प्रमाण, दूसरी चार मात्रा प्रमाण और तीसरी तीन मात्रा प्रमाण ऊँची बनवावे । तथा इन तीनों कुंडोंका अन्तर ( फासला ) एक दूसरेसे एक मात्रा प्रमाण रक्खे ॥ १११ ॥ ११२ ॥
परितो दिक्षु दिक्पालपीठिकाः कुण्डवेदिकाम् । ततः समय॑ तत्सर्वं संशोध्य च जलादिभिः ॥ ११३ ॥ चतुरस्रं ततः कुण्डं त्रिकोणं तदनन्तरम् ।
ततो वृत्तमपि प्रार्चेदम्भोधररसादिभिः॥११४ ॥ उन कुण्डकी वेदिकाओंके चारों ओर आठों दिशाओंमें आठ दिक्पालोंके आठ पीठ बनवावे । पश्चात् उन सबको जलादिके द्वारा शुद्धकर उनकी पूजा करे । पहले चौकोन कुंडकी, इसके बाद त्रिकोण कुंडकी और इसके पश्चात् गोलाकार कुंडकी पूजा व शुद्धता करे ॥ ११३॥ ११४ ॥
तीर्थकृद्गणभच्छेषकवल्यन्त्यमहोत्सवे । प्राप्य ते पूजनाङ्गत्वं पवित्रत्वमुपागताः॥ ११५ ॥ ते त्रयोऽपि प्रणेतव्याः कुण्डेष्वेषु महानयम् ।
गार्हपत्याहवनीयदक्षिणामिप्रसिद्धया ॥ ११६ ॥ तीर्थकर, गणधर देव और सामान्यकेवलीके निर्वाणोत्सवके समय पूज्यताको प्राप्त होकर जो पवित्रताको प्राप्त हुई हैं उन तीनों तरहकी अग्निकी तीनों कुंडोंमें रचना करे । इन तीनों कुंडोंमें जो पहला चौकोन कुंड है उसका नाम तीर्थकर-कुंड है और उसकी अग्निको गार्हपत्य अग्नि कहते हैं। दूसरा तिकोन कुंड है वह गणधर-कुंड है, उसकी आग्नको आहवनीय अनि कहते हैं । तीसरा वर्तुलाकार कुंड है जो सामान्यकेवली-कुंड कहा जाता है, उसकी अग्नि दक्षिणाग्निके नामसे प्रसिद्ध है । भावार्थ-यहाँपर शंका उपस्थित होती है कि अग्नि पूज्य और पवित्र कैसे हो सकती है। यदि अग्नि पवित्र और पूज्य मानी जाय तो जिसे अन्य लोग देवता मानते हैं और पवित्र मानकर उसे पूजते हैं जैनी लोग उसका खण्डन क्यों करते हैं। इसका उत्तर यह है कि वस्तु एक ही है, उसमें अभिप्राय जुदा जुदा है । अन्य लोग अग्निमात्रको अर्थात् सभी तरहकी अग्निको पवित्र पूज्य और देव मानते हैं, हम ऐसा नहीं मानते । किन्तु जिस अग्निमें तीर्थकर, गणधर और सामान्यकेवलीका