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सोमसेनमहानिरवत
मध्यसन्ध्या तु मध्याले काले कृत्यं फलप्रदम् ।
अकाले निर्मितं कार्य स्वल्पं फलति वा न वा ॥ १३६ ॥ प्रातःकाल सम्बन्धी सन्ध्याको सूर्योदयसे पहले पहले समाप्त कर दे । सायंकाल सम्बन्धी सन्ध्या तारे देखनेसे पहले पहले करे । तथा दो पहर सम्बन्धी संध्याको दो पहरको करे । जो क्रिया अपने ठीक समयमें की जाती है वही उत्तम फलको देनेवाली होती है । और जो अपने ठीक समय पर नहीं की जाती वह बहुत ही स्वल्प फलको फलती है अथवा नहीं भी फलती ॥ १३५॥ १३६ ॥
घटिकाद्वितयं कालादतिक्रामति चेत्तदा ।
न दोषाय भवत्यत्र लोकास्यादृषणं स्मृतम् ॥ १३७ ॥ सन्ध्या करनेका जो समय है उससे यदि दो घड़ी समय अधिक हो जाय तो कोई दोष नहीं है । पर इस विषयमें लोगोंके मुखसे दूषण सुननेमें आते हैं ॥ १३७ ॥
उत्तमा तारकोपेता मध्यमा लुप्ततारका । अधमा सूयेसंयुक्ता प्रातःसन्ध्या त्रिधा स्मृता ॥ १३८॥
सबह, दोपहर और सायंकाल इस तरह तीन समय सन्ध्या करना चाहिए। प्रातःकाल संबंधी संन्ध्याके तीन भेद हैं-उत्तम, मध्यम और जघन्य । जो संध्या सुबहके समय तारे न लिपनेके पहले पहले की जाती है वह संध्या उत्तम मानी गई है। और जो तारोंके छिप जाने पर की जाती है वह संध्या मध्यम दर्जेकी संध्या है । तथा सूर्यके उग आने पर जो संध्या की जाती है वह जघन्य दर्जेकी है ॥ १३८॥
अह्नो रात्रेश्च यः सन्धिः सूर्यनक्षत्रवर्जितः । सा तु सन्ध्या समाख्याता मुनिभिस्तत्वदर्शिभिः ॥ १३९ ॥
सूर्योदय न होनेके पहले और नक्षत्रोंके छिप जाने पर जो दिन और रात्रिके सन्धिका समय है उसे तत्त्वदशी मुनि संध्या कहते हैं ॥ १३९ ॥
सन्थ्योत्तमा तृतीयांशे पञ्चमांशे दिनस्य तु ।
मध्याहिकी तदूर्ध्व वा पूर्वेव स्याद्विधौ हि सा ॥ १४० ॥ दिनके तीसरे हिस्सेमें अथवा पाँचवें हिस्सेमें मध्याह्न संध्या करनी चाहिए । इसी समयमै मध्याह्न संध्या करना उत्तम है । इसके अलावा समयमें मध्याह्न सध्याका करना पहलेकी तरह निष्फल समझना चाहिए ॥१४॥