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सोमसेनमहाकविरचित
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शर्वरीषु शशिना प्रयोजनं भास्करण दिबसे किमीश्वर ।
त्वन्मुखेन्दुदलिते तमस्तते भूतलेऽत्र तकयोस्तु का स्तुतिः ॥४०॥ हे नाथ ! इस पृथ्वीतलपर तुम्हारे मुख-चन्द्रमाकी तेज कान्ति द्वारा ही जब तमाम अन्धकारका नाश हो जाता है तब रात्रिके समय चाँदसे और दिनको समर्थ सूर्यसे कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता तो बताइए उनकी क्या स्तुति की जाय ॥ ४० ॥
अमितगुणगणानां त्वद्गतानां प्रमाणं,
भवति समधिगन्तुं यस्य कस्यापि वाञ्छा। प्रथममपि स तावद्वयोम कत्यगुलं स्या,
दिति च सततसंख्याभ्यासमङ्गीकरोतु ।। ४१॥ हे देव ! आपमें निरन्तर स्फुरायमान अमेय गुण-गणोंकी संख्या जाननेकी यदि किसीकी बड़ी भारी उत्कण्ठा है तो वह सबसे पहले आकाश कितने अंगुल लंबा चौड़ा है इस संख्याका निरन्तर अभ्यास करना अंगीकार करे । भावार्थ-जिस तरह आकाशको उँगलियों द्वारा नहीं माप सकते उसी तरह आपके गुणोंकी गिनती भी नहीं कर सकते ॥ ४१ ॥
देव त्वदंघ्रिनखमण्डलदर्पणेऽस्मिन्नध्ये निसर्गरुचिरे चिरदृष्टवक्रः। श्रीकीर्तिकान्तिधृतिसङ्गमकारणानि भव्यो न कानि लभते शुभमङ्गलानि।।४२॥
हे प्रभो ! स्वभावसे ही महा मनोहर आपके चरणोंके नखोंकी कान्ति रूप पूज्य दर्पणमें जो निरन्तर अपना मुख देखता है वह भव्य पुरुष श्री, कीर्ति और धृतिका समागम करानेवाले कौनसे शुभ मंगल बाकी रह जाते हैं जिनको प्राप्त नहीं कर सकता। भावार्थ-आफ्के पुण्य-दर्शनसे सभी मंगल प्राप्य होते हैं ॥ ४२॥
त्वदर्शनं यदि ममास्ति दिने दिनेऽस्मिन् देव प्रशस्तफलदायि सदा प्रसनम् । कल्पद्रुमार्णवसुरग्रहमन्त्रविद्याचिन्तामणिप्रभृतिभिर्न हि कार्यमस्ति ॥ ४३ ॥
हे देव ! प्रशस्त फलका देनेवाला और हमेशा प्रसन्नचित्त रखनेबाला यदि आपका दर्शन मुझे हर रोज होता रहे तो मुझे कल्पवृक्ष, समुद्र, देव, ग्रह मंत्रविद्या, चिन्तामणि इत्यादि बाह्य वस्तुओंसे कुछ भी प्रयोजन नहीं है । भावार्थ-आपके दर्शनोंसे बढ़कर संसारमें कोई भी चीजें नहीं हैं । मैं तो यही चाहता हूँ कि हमेशा आपके दर्शन होते रहें । मुझे इन मंत्र-तंत्रादिकी बिलकुल चाह नहीं है ॥ ४३॥
इति संस्तुत्य देवं तमुपविश्य जिनाग्रतः । भार्यायै याचितं वस्तु पानीयाक्षतचन्दनम् ॥ ४४ ॥