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सौमसनभट्टारकविरचित
भागको चार अंगुल लंबा रक्खे । इस तरह करनेसे उन दर्भोके ऊपर वलय-गोलाकारमें गाँठ और नीचेको दर्भोका अग्रभाग रहता है। इसे पवित्रक कहते हैं । इस पवित्रकको अनामिका उँगलीमें पहने ॥ ८७॥
एवं जिनांधिगन्धश्च सर्वांगं स्वस्य भूषयेत् ।
इन्द्रोऽहमिति मत्वाऽत्र जिनपूजा विधीयते ॥ ८८॥ इस तरह जिनदेवके चरणस्पर्शित गन्धसे अपना सारा शरीर भूषित करे और मैं इन्द्र हूँ ऐसा मानकर श्रीदेवाधिदेव जिन भगवानकी नीचे लिखे अनुसार पूजा करना प्रारंभ करे ॥ ८८॥
श्रीपीठ स्थापन। पाण्डुकाख्यां शिलां मत्वा श्रीपीठं स्थापयेत्क्रमात् ।
मध्ये श्रीकारमालेख्य दर्भाक्षतजलैः शुभैः ॥ ८९ ॥ जिस पर इन्द्रने भगवान्का जन्भाभिषेक किया था वही यह पांडुकाशला है ऐसा मानकर पूजा करने के लिए श्रीपीठको स्थापन करे । इसके बाद उस श्रीपीठ ( सिंहासन ) के बीचमें श्रीशब्द लिखकर दर्भ, अक्षत, जल आदिसे उस सिंहासनकी पूजा करे ॥ ८९॥
प्रतिमास्थापन । ततो मङ्गलपाठेन प्रतिमां तत्र चानयेत् ।
सिद्धादीनां च यन्त्राणि स्थापयेन्मन्त्रयुक्तितः ॥ ९ ॥ इसके बाद उत्तम उत्तम मंगलपाठ-स्तुतियाँ पढ़ते हुए उस सिंहासनपर श्रीजिनदेवकी प्रतिमाको लाकर विराजमान करे । और मंत्रविधानपूर्वक सिद्धचक्रादि यंत्रोंको भी विराजमान करे ॥ ९० ॥
प्रक्षाल्य जिनबिम्ब तत्सुगन्धैर्वासितै लैः। आव्हानं स्थापनं कृत्वा सन्निधानं तथैव च ॥९१ ॥ ततः पञ्चगुरुमुद्रां निवृत्य परिदर्शयेत् । ततः पाद्यविधिं कृत्वा जलैराचमयज्जिनम् ॥ ९२॥ ततो नीराजनां कृत्वा पूजयेदष्टधार्चनैः।
भस्मोदनशलाकागोमयपिण्डनिराजना ॥ ९३ ॥ इसके बाद आव्हान, स्थापना और सन्निधिकरण कर उस जिनबिंबकी सुगन्धित जलसे प्रक्षाल करे । पश्चात् पंचगुरुमुद्राकी रचना कर उस मुद्राको प्रतिमाके ऊपर तीन वार फिरा कर