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माचार
तिलकोंके आकार । आतपत्रं त्वर्धचन्दं तिर्यग्रेखं प्रकीर्तितम् । त्रिदण्डं मानिकस्तम्भमूर्ध्वरेखमुदाहृतम् ॥ ७१ ॥ सिंहपीठं तथा चक्रं वर्तुलं वर्तुलाकृति ।
स्तम्भश्चैकांगुलव्यासो द्वचंगुलोऽप्यथवा भवेत् ॥ ७२ ॥ छत्र और अर्धचन्द्र इन दो तिलकोंका आकार आड़ी लकीर जैसा होता है । त्रिशूल और मानस्तंभ ये दो तिलक खड़ी रेखा जैसे माने गये हैं। तथा सिंहपीठ और चक्र इन दो तिलकोंकी आकृति गोलाकार होती है । मानस्तम्भाकार तिलककी चौड़ाई एक अंगुल अथवा दो अंगुल प्रमाण होती है ॥ ७१॥७२॥
त्र्यंगुलं विष्टरव्यासे चतुरङ्गुलमेव वा । भ्रूकेशयोश्च संव्याप्य विशाले स्तम्भविष्टरे ॥ ७३ ॥ चक्रं तथैव विज्ञेयं त्रिदण्डं केशसंगतम् ।
आतपत्रं स्वर्द्धचन्द्रं रागिणां सुखकारिणम् ।। ७४ ॥ सिंहासनाकार तिलककी चौड़ाई तीन अंगुल अथवा चार अंगुलकी होती है । मनास्तम्भाकार, सिंहासनाकार और चक्राकार ये तीनों तिलक केशोंके ऊपर तक चौड़े होते हैं । तथा त्रिशुलाकार तिलक भौंके केशोंसे मिला हुआ होता है और छत्राकार तथा अर्धचन्द्राकार ये दो तिलक रागी पुरुषोंको सुखी करनेवाले हैं ॥ ७३ ॥ ७४ ॥
सर्वांगे रचना कार्या विकारपरिवर्जिता ।
भुजयो लदेशे वा कण्ठे हृद्युदरेऽपि च ॥ ७५ ॥ सारे शरीरमें तिलक-रचना करे अर्थात् दोनों भुजाएँ, ललाट, कण्ठ, छाती और उदर इन स्थानोंमें तिलक करे । यह तिलक-रचना ऐसी होनी चाहिए जिसे देखकर किसीको कोई तरहका विकार न हो ॥ ७५ ॥
चारों वर्गों के तिलकोंकी विधि। अर्धचन्द्रातपत्रे तु कुन्ति क्षत्रियाः पराः । स्तम्भ पीठं तथा छत्रं ब्राह्मणानां शुभप्रदम् ॥ ७६ ॥