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तीसरा अध्याय।
वीरनाथं प्रणम्यादौ सर्वपापविनाशकम् ।
जलाभिर्गमनं पश्चारिक कर्तव्यं तदुच्यते ॥ १॥ आरंभमें सम्पूर्ण पापोंके विनाश करनेवाले वीर भगवानको नमस्कार कर, जलसे बाहर निकले बाद क्या करना चाहिये, यह बताया जाता है ॥ १॥
नीरानिर्गमनं जलाशयतटे वस्त्रादिकप्रोक्षणं, ...
वस्त्राणां परिधारणं समतले भूमेश्च शुद्धे ततः। सुश्रोत्राचमनं च मार्जनविधि सन्ध्याविधि चोत्तम,
वक्ष्यामि क्रमशः क्रियाविधिमतां शुद्धाः क्रियाः षड्डिधाः ॥२॥ जलसे बाहर जलाशयके तट पर आना, वस्त्र आदिका संप्रोक्षण करना, सपाट और शुद्ध भूमि पर खड़ा रहकर वस्त्र धारण करना, श्रोत्राचमन, मार्जनविधि, और सन्ध्याविधि ये छह परम पवित्र क्रियाएँ क्रमसे कही जाती हैं ॥२॥
जलान्निस्मृत्य प्रास्थाने निर्मले जन्तुवर्जते ।
अन्तरङ्गविशुध्द्यर्थ स्थित्वार्हत्स्नानमाचरेत् ॥३॥ जलसे बाहर निकल कर पवित्र जीव-जन्तु रहित स्थानमें बैठकर, अंतरंग शुद्धिके लिर आगे लिखे अनुसार अर्हत स्नान करे ॥ ३॥
हस्ताभ्यां जलमादाय सकृदेवाभिमन्त्रितम। मस्तके च मुखे बाह्वोर्हृदये पृष्ठदेशके ॥४॥ अभिषिञ्चेत्स्वमात्मानं मन्त्रैः सुरभिमुद्रया।
एकवृत्या जपेच्छक्त्या भक्त्या पंचनमस्क्रियाम् ॥५॥ दोनो हाथोंमें जल लेकर उसे मंत्रद्वारा मंत्रित कर, मंत्रोच्चारण पूर्वक मस्तक, मुख, दोनों भुजा, हृदय, पीठ आदि स्थानोंमें अपनी आत्माका आभिषेचन करे । पश्चात् सुरभिमुद्रा द्वारा एकचित्त हो कर, अपनी शक्तिके अनुसार भक्तिभावसे पंच नमस्कार मंत्रका जाप करे ॥ ४ ॥५॥
शास्त्रोक्तविधिना स्नात्वा द्विराचम्य ततः परम् । प्राणायामं ततः कृत्वा सङ्कल्प्य तर्पयेदथ ॥ ६॥