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सोमसेनमारकावरचित
दर्भ विना में कुर्वीत पायी जिमपूजनम् ।
जिनयज्ञे जये होमेमनग्रन्थिविधीक्ते ॥ १७ ॥ आचमन, जिमपूजन वगैरह क्रियाएँ बिना दौके न करे । तथा जिनपूजा, जप और होमके समय पवित्रकमें ब्रह्मगाँठ लगावे ॥९७ ॥
सपवित्रः सदर्भो वा कडाधमन परे ।
नोच्छिष्टं तात्पवित्र तु मुक्त्वोच्छिष्ट तु धर्जयेत् ॥ १८ ॥ पवित्रक या दर्भ हाथमें रखकर आचमन करना चाहिए । इस प्रकार आचमन करनेसे वह पवित्रक उच्छिष्ट नहीं होता। तथा भोजनके बाद वह उच्छिष्ट हो जाता है अतः हाथसे निकालकर उसे एक तरफ डाल दे॥९८ ॥
पवित्रकके भेद। दार्भ नागं च तानं वा राजतं हैममेव च ।
विभूषा दक्षिणे पाणौ पवितं चोत्तरोत्तरम् ॥ ९९ ॥ दर्भ, सीसा, ताँबा, चाँदी और सोना इनमेंसे किसी एकका पवित्रक ( उला) बनवाकर दाहिने हाथमें अवश्य पहने रहना चाहिए । पत्रिक दर्भसे सबसेका, सीसेसे ताँबेका, ताँबेसे चाँदीका और चाँदीसे सुवर्णका उत्तम गिना जाता है ॥ ९९ ॥ .
अनामिक्यां धृतं हैमं तर्जन्यां रौप्यमेव च । ___ कनिष्ठायां धृतं तानं तेन पूतो भवेन्नरः ॥ १०० ॥ अनामिका-चिट्टीके पासवाली-उंगली में सोनेका, सर्जनी-अंगठेके पासकी-उंगलीमें चाँदीका और कनिष्ठा-आखिरकी चिट्टी-ऊँगलीमें ताँबेका छल्ला पहननेवाला मनुष्य पवित्र होता है ॥१०॥
कर्णयोः कुण्डले रम्ये करणं करभूषणम् ।
उत्तरीयं योगपट्ट पादुके रौप्यनिर्मिते ॥ १०१॥ श्रावकोंको दोनों कानोंमें सोमेके कुंडल, दोनों हाथोंमें सोनेके चूड़े (कड़े ) और पैरों में चाँदीकी खडाऊँ पहननी चाहिए तथा एक दुपट्टा और एक साफा पास होना चाहिए ॥१०१॥
न धार्य पितरि ज्येष्ठे भ्रातरि सुखजीवति । योगपटुं च तर्जन्यां मौंज रौप्यं च पादुका ॥१०२॥