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वार्णकाचार ।
सर्वेषां वा भवेत् द्वाभ्यां पवित्रं ग्रथितं नवम् ।
त्रिभिश्च शान्तिके कार्य पौष्टिके पश्चभिस्तथा ॥ ९१ ॥ अथवा तीनों ही वर्गों के लिए दो दर्भोका भी नया गुंथा हुआ पवित्र होता है । तथा शान्तिकर्ममें तीन और पौष्टिक कर्ममें पाँच दर्भीका पवित्रक बनाना चाहिए ॥११॥
चतुर्भिश्चाभिचारे तु निष्कामैरिति केचन ।
द्वौ दी दक्षिणे हस्ते सर्वदा नित्यकर्मणि ॥ ९२ ॥ जारण, मारण आदि कर्मों में चार दौंका पवित्र बनाया जाता है । किसी किसी आचार्यका कहना है कि निष्काम मनुष्योंके लिए भी चार दर्भोका पवित्र काममें लाया जाता है।तथा तीनों वर्णोको प्रतिदिनके कृत्योंमें हमेशा दो दर्भका पवित्र दाहिने हाथमें रखना चाहिए ॥ ९२ ॥
पूजायां तु त्रयो ग्राह्याः साग्राः स्युः षोडशाङ्गुलाः ।
द्विमूलमेकतः कुर्यात्पवित्रं चाग्रमेकतः ॥ ९३ ॥ पूजाके समय तीन दर्भीका पवित्र बनाया जाय। पवित्रके दर्भ सोलह अंगुल लम्बे होने चाहिए। उनकी नोकें टूटी हुई नहीं होनी चाहिए । तथा उन द की जड़ एक तरफ और नोकें एक तरफ होनी चाहिए। ऐसा नहीं कि किसीकी जड़ किधर ही हो और नोकें किधर ही हों ॥ ९३ ॥
हयगुलं मूलवलयं ग्रन्थिरेकाङगुला मता।
चतुरङ्गुलमग्रं स्यात्पवित्रस्य प्रमाणकम् ॥ ९४ ॥ उँगलीमें पिरोनेके पवित्रकी गोलाई दो अंगुल और उसकी गाँठ एक अंगुल प्रमाण होनी चाहिए । तथा उसका अग्र भाग चार अंगुल होना चाहिए । यह पवित्रका प्रमाण है ॥ ९४ ॥
स्नाने दाने जपे यज्ञे स्वाध्याये नित्यकर्माण ।
सपवित्रौ सदी वा करौ कुर्वीत नान्यथा ॥ ९५ ॥ स्नान, दान, जप, पूजा स्वाध्याय और नित्यकर्मके समय हाथमें पवित्र या दर्भ अवश्य रहने चाहिए । और और समयोंमें कोई आवश्यकता नहीं है ॥ ९५ ॥
करयुग्मस्थितैर्दभैः समाचामति यो गृही।
महत्पुण्यफलं तस्य भुक्ते चतुर्गुणं भवेत् ॥ ९६ ॥ ___ जो गिरस्ती दोनों हाथोंसे दर्भ पकड़कर आचमन करते हैं उन्हें बड़ा पुण्य होता है । यदि पवित्र पहन कर भोजन किया जाय तो इससे चौगुना फल प्राप्त होता है ॥ ९६ ॥