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सोमसेनभट्टारकेविरचित
जाते हैं । नाकके दाहिने छेद द्वारा हवाके भीतर लेजानेको पूरक कहते हैं । और बायें छेद से भीतरकी हवाके बाहर निकालनेको रेचक कहते हैं । तथा पेटमें हवा दबाकर रखनेको कुंभक कहते हैं ॥ ७२ ॥ ७३ ॥
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दक्षिणे रेचकं कुर्याद्वामेनापूर्य चोदरम् ।
कुम्भकेन जपं कुर्यात्प्राणायामः स उच्यते ॥ ७४ ॥
नाकके बायें छेदसे उदरको हवासे भरकर पूरक करे । और दाहिने छेदसे रेचक करे । तथा कुंभकसे जप करे । इसे प्राणायाम कहते हैं ॥ ७४ ॥
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पञ्चाङ्गुलीभिर्नासाग्रपीडनं प्रणवाभिधा । मुद्रेयं सर्वपापघ्नी वानप्रस्थगृहस्थयोः ॥ ७५ ॥
हाथकी पाँचों उँगलियोंसे नाकके अग्रभागके पकड़नेको प्रणव मुद्रा कहते हैं । यह मुद्रा वानप्रस्थ और गिरस्तोंके सब पापोंका क्षय करनेवाली है ॥ ७५ ॥
कनिष्ठानामिकाङ्गुष्ठैर्नासाग्रस्य प्रपीडयन् ।
ओंकारमुद्रा सा प्रोक्ता यतेश्च ब्रह्मचारिणः ।। ७६ ।
कनिष्ठा अनामिका और अँगूठेसे नाककी नोकके पकड़नेको ओंकार मुद्रा कहते हैं । इस मुद्राको यति और ब्रह्मचारी करते हैं ॥ ७६ ॥
तीर्थत प्रकर्तव्यं प्राणायामं तथाऽऽचमम्
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सन्ध्या श्राद्धं च पिण्डस्य दानं गेहेऽथवा शुचौ ॥ ७७ ॥
प्राणायाम, आचमन, सन्ध्यावंदन, और पिण्डदान ये नदी वगैरहके किनारे पर बैठ करे । अथवा अपने घरमें भी किसी पवित्र स्थानपर बैठ कर करे ॥ ७७ ॥
सिंहकर्कटयोर्मध्ये सर्वा नद्यो रजस्वलाः ।
तासां तटे न कुर्वीत वर्जयित्वा समुद्रगाः ॥ ७८ ॥
सिंह संक्रमण और कर्क संक्रमणमें सब नदियाँ प्रायः अशुद्ध रहती हैं इसलिये उन दिनों उनके किनारे पर उक्त क्रियाएँ न करें। और जो नदियाँ सीधी जाकर समुग्रमें मिल गई हैं उनके किनारे पर उक्त क्रियाओंके करनेमें कोई दोष नहीं हैं ॥ ७८ ॥
उपाकर्मणि चोत्सर्गे प्रातः स्नाने तथैव च । चन्द्रसूर्यग्रहे चैव रजोदोषो न विद्यते ॥ ७९ ॥