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सोमसनमारविरचित
अर्थात् सभी विषयोंमें आमियाब क्रिया सम्ममा तो कोई भी किया जानेगी ना नीतिके अनुसार यदि इस तरहके विषय जिसको कि किस तरह कितने ही लोग अपार समझते हैं उसी तरह और
और विषयोंको और और पुरुष अपनी निरी कुतर्कों द्वारा असार ठहरावेंगे तो ऐसा होते होते सर्वत्र हर एकके कहे अनुसार अविश्वास ही होता जाया तो कोई भी क्रिष्णाय ठीक ठीक न बन सकेंगी। जिनका फल यह होगा कि लोग मनमामी क्रियाओंको करते हुए कुमार्गकी ओर ही झुकेंगे । इसाझे बेहत्तर है कि शास्त्रकी मर्यादाका उल्लंघन न किया जाय । और इस विश्वासको अपने दिलसे हटा देना चाहिए कि पीछेके सोने के विषय हिंदूधर्मसे लेकर अपनेमें मिला लिये हैं ॥ १८॥
सुरापानसमं तोयं पृष्ठतः केशबिन्दवः ।
दक्षिण जान्हवीतोष वामे तु रुधिरं भवेत् ॥ १९ ॥ सिरके केशों में लगा हुआ जल जो कि पीठ पर टपकता है वह मदिरापानके समान माना गया है और जो दाहिनी ओर गिरता है वह समाजलके समान कहा गया है, तथा जो बाई तरफ झरता रहता है वह थिरके समान मिना गया है । भावार्थ-यहाँ पर कोई यह तर्क करे कि जिस सिरके जलको देव पीते हैं वह जल मादिरा और रुधिरके तुल्य कहा गया है यह कैसे ठीक माना जा सकता है। इसका उत्तर यह है कि जैसे किसीने कहा कि गुरुका हर एक अंग-उमांग पूज्य है. तो किसीने तर्क कर दिया कि क्या उसका गुदस्थान व लिंग आदि भी पूज्य है । बस जिस तरह इस विषयमें यह तर्क है वैसा ही उपर्युक्त तर्कको समझना चाहिये । तथा यह भी नहीं है कि मदिरा व रुधिरके तुल्य कह देनेसे वह मदिरा या रुधिर ही हो गया हो । जैसे किसीने कहा कि यह भोजन मांस जैसा लगता है तो क्या वह बिल्कुल पंचेन्द्रिय मुर्देका मांस ही हो गया, कभी नहीं । किन्तु इसमें मांसकी कल्पना हो जानेके कारण वह मांस जैसा कहा गया है । अतः जो जिस विषयमें जिसकी समानता धारण कर लेता है वह उसीके अनुसार हेय और उपादेय रूप हो जाता है। सारांश तो इन श्लोकोंका यह है कि इन इन कारणोंसे यह जल ऐसा ऐसा हो जाता है अतः उससे शरीरको न पोंछना चाहिए, किन्तु कपड़े पहननेके पहले ही अच्छी तरह पांछ लेना उचित है । यही बात इस नीचेके श्लोकसे दिखाते हैं ॥ १९॥
स्नानं कृत्वा धृते वस्त्रे पतन्ति केशबिन्दवः ।
तत्स्वानं निष्फलं विद्यात् पुनः स्नानेन शुध्धति ॥ २० ॥ स्नान कर वस्त्र पहन लेनेपर जो जल केसोंमें उलझा हुआ रह जाता है, उसकी जो बृदें गिरती रहती हैं उससे वह किया हुआ स्मान निष्फल हो जाता है । वह पुरुष पुनः स्नान करनेसे शुद्ध होता है ॥२१॥
अपवित्रपटो नमो नग्नथाधर्टः स्मृतः । नामा मलिनोदात्री नमः कौपीनवानपि ॥ २१ ॥