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सोमसेमभहारकाविरचित
डाँसके बराबर है । जैसे बिल्ली अपने सजातीय द्वेष करती है वैसे ही जो दूसरे श्रोताओंसे जो द्वेष करें वे बिल्लीके जैसे श्रोता हैं। जैसे जौंकको खून ही अच्छा लगता है वैसे ही जिनको अच्छी बात तो न रुचे और खराब बातकी ओर ही जिनकी परणति हो वे जौंकके जैसे श्रोता हैं । ये सब जघन्य श्रोता हैं । सारांश उत्तम श्रोता तो शास्त्र सुनकर स्व और परका उपकार करते हैं; मध्यम श्रोता यद्यपि स्व-परका उपकार नहीं करते, परन्तु दूसरोंके धर्मसेक्नमें भी कुछ बाधा नहीं देते । और तीसरे जघन्य श्रोता उपकार तो दूर रहे प्रत्युत अपना और पुरका अपकार करते हैं । अतः ये जघन्य दर्जे के श्रोता शास्त्र पढ़ने, शास्त्र-व्याख्यान सुनने आदिके बिलकुल पात्र नहीं हैं ॥ २५ ॥
उपोद्घात । श्रीसामायिकशौचसान्ध्यविधिसत्पूजासुमन्त्राशनं,
द्रव्योपार्जनगर्भधानभृतयस्त्रिंशत्क्रियाः सत्रिकाः । मौजीबन्धनसद्वतोपदिशनं पाणिग्रहर्षिनते,
ग्रन्थे सूतककं त्रयोदशतयाध्यायान् विधास्याम्यहम् ॥ २६ ॥ सामायिक, शौच, सन्ध्याविधि, पूजा, मंत्र, भोजन, धन कमानेकी विधि, गर्भाधानादि तेंतीस क्रियाएँ, यज्ञोपवीत, ब्रतोंका उपदेश, बिवाह, मुनिव्रत और सूतक ये तेरह विषय जुदे जुदे तेरह अध्यायों द्वारा इस ग्रन्थमें कहे जावेंगे ॥ २६ ॥
गुणान् ग्रन्थस्य वक्तश्च श्रोतृणां क्रमशः स्फुटम् ।
विधायाध्यायकानेव कथयामोऽधुनाऽदृतान् ॥ २७॥ वक्ताके गुण, शास्त्रके गुण और श्रोताओंके गुण ये तो क्रमसे पीछे स्पष्ट कह चुके हैं। अब वे तेरह बिषय, जिनके कि ऊपरके श्लोकमें कहनेकी प्रतिज्ञा की है, क्रमसे कहे जाते हैं ॥ २७ ॥
सामायिक । ध्यानं तावदहं वदामि विदुषां ज्ञानार्णवे यन्मत,
__मात रौद्रसधHशुक्लचरमं दुःखादिसौख्यप्रदम् । पिण्डस्थं च पदस्थरूपरहितं रूपस्थनामा परं,
तेषां भिन्नचतुश्चतुर्विषयजा भेदाः परे सान्त वै ॥२८॥ ज्ञानार्णव शास्त्रमें जिस ध्यानका विस्तारसे कथन किया गया है उसीका यहाँ पर संक्षेपमें किया जाता है। वह ध्यान आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल इस प्रकार चार तरहका है। इनमेंसे आर्तध्यान
और रौद्रध्यान तो दुःखके करनेवाले हैं तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान ये दो ध्यान सुखके देनेवाले हैं। तथा पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ऐसे भी ध्यानके चार भेद हैं ।तथा ऊपरके आर्तध्यान आदिमेंसे प्रत्येक ध्यानके चार-चार पदार्थ ध्येय हैं, अतः हर एकके अपने अपने विषयके अनुसार चार चार भेद होते हैं ॥ २८॥