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सोमसेनानिचितशौचं च विविध प्रोक्ता बासमाभ्यंतरं तथा।
मृजलाभ्यां स्मृतं बाह्य भाषशुध्धा तथाऽन्तरम् ॥३९॥ शौच दो प्रकारका है। एक बाह्य और दूसरा आभ्यन्तर । मिट्टी और जलसे जो शौच किया जाता है वह बाह्य शौच है और अपने परिणामोंकी शुद्धि रखने आभ्यासर शौक होता है ।। ३९ ॥
अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो दुस्थितोऽपि वा ।.
ध्यायेत्पश्चनमस्कारं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥४०॥ मनुष्य चाहे अपवित्र हो, चाहे पवित्र हो, चाहे अच्छी हालतमें हो, और चाहे खराब हालतमें हो वह पंचनमस्कारके ध्यान करनेसे सर्व तरहके पापोंसे निर्मुक्त हो जाता है ॥ ४० ॥
अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोऽपि वा।
यः सरेत्परमात्मानं स बाह्याभ्यन्तरंः शुचिःः॥४१॥ तथा मनुष्य, अपवित्र हो या पवित्र हो अथवा किसी भी हालत में क्यों न हो, परन्तु जो पर स्माका स्मरण करता है वह अन्तरंबसे और बाहिरसे पवित्र है ॥ ४१.॥
चुलकं कारिणा पूर्ण मूत्स्नांशकैः सप्तभिः ।
हस्तेनैकेन हस्तस्यैकस्य शौचं पुनः पुनः॥४२॥ शौच (गुद-प्रक्षालन) कर चुकने के बाद, मिट्टीकी सात भाषा कर ले, और दाहिने हाथके चुल्लमें पानी लेकर बायें हाथाको बार बार तीन बार-धोबेत॥ ४२ ॥
निबारमेवमासोच्य द्वौ करो क्षालयेत्ततः ।
कटिस्नानं जलैः कृत्वा पादौ प्रक्षालयेत्ततः॥४३॥ इस तरह बायें हाथको धो लेनेपर तीन बार दोनों हाथोंको एक साथ धोवे। इसके बाद कमर तक स्नान करके पैरोंको खूब अच्छी तरहसे धोवे. ॥ ४३ ॥
मृच्छुभ्रवर्णा वित्रस्य क्षत्रिये रक्तमृत्तिका ।
वैश्यस्य पीतवर्णा तु शूद्रस्य कृष्णमृत्तिका ॥४४॥ ब्राह्मणोंको सफेद, और क्षत्रियोंको लाल मिट्टी लेनी चाहिए; तथा वैश्योंको पीली और शूद्रोंको काली मिट्टी शौचके समय काममें लेनी चाहिए ॥ ४४ ॥
निषिद्धमृत्तिका। अन्तगृहे देवगृहे वल्मीके मूषकस्थले । कृतशौचाविशेषे च न प्रायाः पञ्चमृत्तिकाः ॥ ४५ ॥