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त्रैवर्णिकाचार |
यह मंत्र बोलकर टट्टी के लिए बैठे। इस मंत्रका भाव यह है कि हे इस क्षेत्रमें रहनेवाले क्षेत्र - पाल क्षमा कीजिये, मुझे अल्प शक्तिधारी मनुष्य समझिये, आप इस स्थानसे हट जाइए - मैं यहाँपर मल क्षेपण करता हूँ ॥ ३२ ॥
क्षेत्रपालाज्ञया क्षेत्रे पूर्वास्योवोत्तरामुखः ।
शिरः प्रदेशे कर्णे वा धृतयज्ञोपवीतकः ॥ ३३ ॥ . पूर्वादिदिक्षु निक्षिप्तदृष्टिरूर्ध्वमधोऽपि वा । मन्दतालोभतृष्णासु चित्संस्मरन्मलं सृजेत् ॥ ३४ ॥+
इस तरह क्षेत्रपालसे आज्ञा लेकर पूर्व दिशाकी ओर या उत्तर दिशाकी ओर मुँह करके टट्टी के लिए बैठै, यज्ञोपवीतको सिरपर अथवा कानमें टाँगले । टट्टी करते समय अपनी नजर चारों दिशाओंमें या ऊपरको या नीचेको रक्खे । तथा उस समय न तो अधिक देर करे, न शीघ्रता करे और न अपने चित्तको इधर उधर डुलावे ॥ ३३-३४॥
ततो वामकराङ्गुष्ठान्नङ्गुलिद्वितयेन वै ।
शिश्नस्याग्रं गृहीत्वैवं किञ्चद्दूर व्रजेद् गृही ॥ ३५ ॥
इसके बाद, बायें हाथके अँगूठे और अँगूठेके पासकी दो उँगलियोंसे लिंगके अग्रभागको ग्रहणकर जलाशय तक जावे ॥ ३५ ॥
प्रासुकं जलमादाय चोपविश्य यथोचितम् ।
जानुद्वयस्य मध्ये तु करौ न्यस्याचरेच्छुचिम् ।। ३६ ।।
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वहाँ, जलाशयके किनारे पर ठीक रीतिसे बैठकर, दोनों घुटनों के बीचमें दोनों हाथोंको रखकर प्रासुक जलसे गुदप्रक्षालन करे ॥ ३६ ॥
तीर्थे शौचं न कर्तव्यं कुर्वीतोऽधृतवारिणा । गालितेन पवित्रेण कुर्याच्छौचमनुद्धतः ॥ ३७ ॥
तीर्थस्थानके जलाशयोंमें गुद- प्रक्षालन न करे । लोटे वगैरह से निकाल कर छने हुए पवित्र जलसे शौच करे || ३७ ॥
जलपात्रं ज्येष्ठहस्ते बामस्हतेन शौचकम् ।
पुनः प्रक्षाल्य हस्तं तं पुनः शौचं विधीयते ॥ ३८ ॥
पानीके लौटेको दाहिने हाथमें पकड़े और बायें हाथसे शौच करे। एक बार ऐसा कर चुके इसके बाद हाथ धोवे और फिर दूसरी बार शौच करे ॥ ३८ ॥
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- मन्दतामतिराभस्यमन्यचित्तत्वमुत्सृजेत् इति पाठः साधीयान् ॥
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