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सोमसेनभट्टारकविरचित
इस गुणस्थानका काल अ ई उ ऋ लृ इन पाँच हस्व अक्षरोंके उच्चारणमें जितना समय लगता है उतना है । यहाँ पर उस सूक्ष्मकाययोगका निरोध हो जाता है, इस लिए ये निरुद्धयोग कहे जाते हैं; इनके किसी भी कर्मका आस्रव नहीं होता, अतः विगतास्रव कहे गये हैं । इस गुणस्थानके उपांत्य समय में --- चरम समयसे एक समय पहले -- ७२ कर्मोंका नाश होता है उसी क्षण में समुच्छिन्नक्रियध्यान होता है । इसके बाद चरम समयमें तेरह प्रकृतियोंका नाश कर वे परमात्मा मुक्ति-प्रासादमें पहुँच जाते हैं ॥ ४४ ॥
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आर्तरौद्रसुधर्माख्यशुक्लध्यानानि चागमे ।
ज्ञेयानि विस्तरेणैव कारणं सुखदुःखयोः ॥ ४५ ॥
यहाँ संक्षेपमें चारों ध्यानों का स्वरूप दिखाया गया है । इनका विशेष विस्तार आगमसे जानना चाहिए। इनमेंसे आर्त- रौद्र तो दुःखके कारण हैं और धर्म्य - शुक्लध्यान सुखके कारण हैं ॥ ४५ ॥ यत्किञ्चिद्विद्यते लोके तत्सर्वं देहमध्यगम् ।
इति चिन्तयते यस्तु पिण्डस्थं ध्यानमुच्यते ॥ ४६ ॥
इस लोकमें जो कुछ भी पदार्थ मोजूद हैं उन सबका अपने शरीरमें चिन्तवन करना पिण्डस्थ ध्यान है ॥ ४६ ॥
एकद्वित्रिचतुःपञ्चषडष्टौ षोडशादिकाः ।
अक्षरात्म्यपरा मन्त्राः शराग्निसंख्यकास्तथा ॥ ४७ ॥ एवं मन्त्रात्मकं ध्यानं पदस्थं परमं कलौ । शरीरजीवयोर्भेदो यत्र रूपस्थमस्तु तत् ॥ ४८ ॥
एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह, आठ, सोलह और पेंतीस अक्षरोंके मंत्रोंका ध्यान करनेको पदस्थ ध्यान कहते हैं । और जिसमें शरीर और जीवका भेद चिन्तवन किया जाय उसे रूपस्थ ध्यान कहते हैं । भावार्थ - विभूति-युक्त अर्हन्त देवके गुणोंका चिन्तवन करना रूपस्थ ध्यान है ॥ ४७-४८ ॥ अष्टकर्मविनिर्मुक्तमष्टाभिर्भूषितं गुणैः ।
यत्र चिन्तयते जीवो रूपातीतं तदुच्यते ॥ ४९ ॥
आठ कर्मोंसे रहित और आठ गुणोंकर सहित अमूर्त्तिक सिद्ध परमात्माके ध्यान करनेको रूपातीत ध्यान कहते हैं । यहाँ इन चारों ध्यानोंका केवल अक्षरार्थ लिखा गया है, विशेष कथन ज्ञानार्णव आदि ग्रन्थोंसे समझना चाहिए ॥ ४९ ॥
प्रातः काल - संबंधी क्रियाएँ । प्रातश्चोत्थाय पुम्भिर्जिनचरणयुगे धार्यते चित्तवृत्ति, - रात रौद्रं विहाय प्रतिसमगमियं चिन्त्यते सप्ततत्त्वी । ध्यानं धर्म्य च शुक्लं विगतकलिमलं शुद्धसामायिकं च, कुत्रत्योऽयं मदात्मा विविधगुणमयः कर्मभारः कुतो मे ॥ ५० ॥