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त्रैवर्णिकाचार |
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लाल, पीले, हरे, श्वेत, काले और छोटे बड़े देहको धारण कर ऊँच नीच कुलोंमें, उत्तम नटके समान नृत्य करता है ॥ ५७ ॥
कचित्कान्ताश्लेषात्सुखमनुभवत्येषु मनुजः, कचिद्गीतं श्राव्यं विविधवररागैश्च श्रृणुयात् । कचिन्नृत्यं पश्यन्नखिलतनुयष्टीविलसितं, रतिं मन्येताहो उचितविषयो धर्मविमुखः ॥ ५८ ॥
यह जीव कहीं पर युवतियोंके गाढ़ आलिंगन करनेसे उत्पन्न हुए सुखका अनुभव करता है, कहीं पर नाना राग-रागिनियोंसे रसीले मधुर गीत सुनता है, कहीं पर सारे शरीरसे नाना प्रकारके विलासोंको करती हुई विलासानियोंके नृत्यको प्रेमभरी दृष्टिसे देखता हुआ उनके मोहफाँसमें फँसता है, और धर्मसे विमुख होकर विषय-वासनाओंमें सराबोर हो रहा है । यह बड़ा ही आश्चर्य है ॥ ५८ ॥
कचित्कांता कमलवदना हावभावं करोति,
कचित् दुःखं नरककुहरे पंचधा प्राणघातात् । कचिच्छतं चमरसहितं दासपुम्भिः प्रयुक्तं,
कचित्कीटो मृतभवितनौ प्राणिनां कर्मयोगात् ॥ ५९ ॥
कहीं पर कमलके सदृश मुखवाली कान्ताएँ अपना हाव-भाव दिखला रही हैं । कहीं पर कितने ही प्राणी पाँच प्रकारके प्राणोंके घातसे उत्पन्न हुए दुःखको नरकमें पड़े पड़े भोग रहे हैं । किन्हीं पर नौकर-चाकर छत्ते लगाए हुए खड़े हैं । कोई चमर ढौर रहे हैं । और कोई प्राणी अपने अपने कर्मके उदयसे मरे हुए प्राणियोंके मुर्दा शरीरके कीड़े बन रहे हैं। इस प्रकार सबेरे ही शैय्यासे उठकर संसारकी दशाका चिन्तवन करे ॥ ५९॥
सामायिक:
महाव्रतं दुर्धरमेव लोके, धर्तुं न शक्तोऽहमपि क्षणं वा । संसारपाथोनिधिमत्र केनो, पायेन चापीह तरामि दीनः ॥ ६० ॥ इत्यादिकं चेतसि धार्यमाणः, पल्यङ्कदेशात्सुमुनीन्द्रबुध्धा । पवित्रवस्त्रः सुपवित्रदेशे, सामायिकं मौनयुतश्च कुर्यात् ॥ ६१ ॥
ये पंच महाव्रत इस लोकमें बड़े ही दुर्धर हैं। इनका धारण करना बड़ा ही कठिन है । मैं तो क्षणभर भी इन्हें धारण नहीं कर सकता। किस उपाय से इस संसार - समुद्रसे तैरकर मैं पार होऊँ इत्यादि बातोंका अपने चित्तमें शैय्यासे उठते ही चिन्तवन करे । इसके बाद शैय्याको छोड़कर मैं मुनिव्रत अङ्गीकार करूँ इस आशयसे, पवित्र स्थानमें बैठकर, साफ कपड़े पहन, मौन-पूर्वक, सामायिक करे ॥ ६०-६१॥
समता सर्वभूतेषु संयमे शुभभावना ।
आर्तरौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिकं मतम् ॥ ६२ ॥