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सोमसेनभट्टारकावरचित
कर्मयोगसे तिर्यग्गति में यदि यह जन्म धारण करता है तो वहाँ पर भी तीव्र गर्मी, ठंड और वर्षा निमित्तसे उत्पन्न हुए दुःखोंको भोगता है; जंगलोंमें सिंहादि क्रूर जानवरोंके भयसे दुःखी होता है; अपनी पीठ पर खूब भार लादता है; लकड़ी, कोड़े, चाबुक आदिसे पिटता है । वहाँ इसके नाककान छेदे जाते हैं; भूख-प्यासकी तीव्र वेदनाको सहता है; डाँस, मच्छर, मक्खिएँ अत्यन्त काटती रहती हैं; स्वाधीनताका जहाँ पर लेश भी नहीं है और रस्सी आदिसे एक जगह बन्धे हुए रहना पड़ता है । सारांश यह कि तिर्यग्गतिमें भी दुःख ही दुःख भरे हुए हैं; सुखका नामनिशान भी नहीं है ॥ ५४ ॥
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मर्त्येष्विष्टवियोगजं दुरिततो दुःखं तथा मानसं, शारीरं सहजं चतुर्विधमिदं चागन्तुकं श्रूयते । दारिद्यानुभवः प्रतापहरणं कीर्तिक्षयः सर्वथा, रौद्रार्तिप्रभवं तथा व्यसनजं बन्धादिकं चापरम् ॥ ५५ ॥ मनुष्य - गतिमें भी अपने हृदयके भूषण स्त्री, पुत्र आदिके वियोगसे अत्यन्त कष्ट होता है । मानसिक क्लेश, शारीरिक क्लेश, स्वाभाविक क्लेश और आगन्तुक क्लेश यह चार प्रकारका क्लेश भी इसी मनुष्य - गति में सुना जाता है । दरिद्रताका अनुभव करना पड़ता है, अपमानित होना पड़ता है, बदनामी उठानी पड़ती है, इस कारण इसे अत्यन्त घोर दुःख होता है । रौद्रध्यान, आर्तध्यानके करनेसे, व्यसनोंके सेवन से तथा और भी वध - वंधनादिके कारण अनेक दु:ख इस मनुष्य - गतिमें प्राप्त होते हैं ।। ५५ ।
देवेष्वेव च मानसं बहुतरं दुःखं सुखच्छेदकं,
देवीनां विरहात्प्रजायत इति प्रायः स्वपुण्यच्युतेः ।
इन्द्रस्यैव सुवाहनादिभवनं दासत्वमङ्गीकृतं,
नानैश्वर्यपराङ्मुखं मरणतो भीतिस्तस्था दुस्तरा ॥ ५६ ॥
देवगतिमें यद्यपि शारीरिक कष्ट नहीं है तो भी देवी आदिके वियोग हो जानेके कारण बड़ा भारी मानसिक कष्ट होता है, जो सुखकी जड़ कोटनवाला है । तथा पुण्यकर्म के अभाव से कितने ही देवगण इन्द्रके वाहन आदि बनकर रहते हैं । कितनोंको दासत्व स्वीकार करना पड़ता है। कितने ऐश्वर्यसे कोसों दूर हैं । ये बड़े बड़े ऋद्धि-सम्पन्न देवोंका ऐश्वर्य देख देखकर मन ही मनमें झुलसते रहते हैं । वे मरनेसे बड़े ही डरते रहते हैं । इस प्रकार वहाँ भी कई तरहके दुःख भरे पड़े हैं ॥ ५६ ॥ लोकोऽयं नाट्यशाला रचितसुरचना प्रेक्षको विश्वनाथो,
tataisi नृत्यका विविधतनुधरो नाटकाचार्यकर्म ।
तस्माद्रक्तं च पीतं हरितसुधवलं कृष्णमेवात्र वर्ण,
धृत्वा स्थूलं च सूक्ष्मं नटति सुनटवत् नीचको चैः कुलेषु ।। ५७ ।।
यह संसार एक खूबसूरत बनी हुई नाट्यशाला ( थिएटर ) है; सिद्ध परमात्मा दर्शक हैं; अनेक प्रकार देहधारी यह जीव नर्तक है और ये कर्म नाटकाचार्य हैं। अतः यह जीव इस नाट्यशाला में