________________
कर्णिकाचार |
सबेरे ही शैय्यासे उठकर जिनेन्द्र देवके चरणोंमें अपनी लौ लमावे; आर्त-रौद्र ध्यानको छोड़कर हर समय सप्त तत्त्वोंका चिन्तवन करे; धर्म्यध्यान और शुक्लध्यानका चिन्तवन करे और पापोंसे छुड़ानेवाले सामायिकको करे । तथा यह भी विचार करे कि यह नाना गुणोंका पुंज मेरा आत्मा कहाँसे आया और यह दुःखदेनेवाला कर्मभार मेरे कैसे लगा ॥ ५० ॥
संसारे बहुदुः खभारजटिले दुष्कर्मयोगात्परं,
rasi नरजन्म पुण्यवशतः प्राप्तः कदाचित्कचित् । दुष्प्रापं जिनधर्ममूर्जितगुणं सम्प्राप्य सन्धीयते,
नाना दुष्कृतनाशनं सुखकरं ध्येयं परं योमिभिः ॥ ५१ ॥
इन दुष्ट कर्मोंके कारण यह संसार अनेक प्रकारके दुःखभारसे जटिल है । इसमें किसी शुभकर्मके उदयसे इस जीवने मनुष्य जन्म पाया है। इसे जैनधर्म बड़ी कठिनतासे प्राप्त हुआ है। जैनधर्म अनेक पापोंको क्षणभर नाश कर देनेवाला है, अचिन्त्य सुखका करनेवाला है। बड़े बड़े योगीश्वर इसका ध्यान करते हैं । यह उत्कृष्ट गुणोंका भंडार है ॥ ५१ ॥ आहारसाध्वत्रपरिग्रहमैथुनाख्याः, सञ्ज्ञाश्चतस्र इति ताभिरुपद्रुतोऽङ्गी । कुत्रापि नो स लभते भुवनत्रयेऽस्मिन्, सौख्यस्य लेशमपि चिन्त्यमिति प्रभाते ॥ ५२ ॥
१३
आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चार प्रकारकी अभिलाषाएँ इस जीवको खूब सता रही हैं । इसे तीनों भुवनोंमें कहीं पर भी सुखका लेश भी नहीं मिलता । इस तरह सुबह ही सुबह उठकर चिंतवन करे । तथा — ॥ ५२ ॥
दुःखं श्वभ्रेषु शीतं बहुलमतितरामुष्णमेव क्षुदादि-,
च्छेदो भेदश्व घर्षः क्रकचविधितया पीलनं यन्त्रमध्ये | शारीरं चान्त्रनिश्कासनमपि बहुधा ताडनं मुद्गराद्यै-, रग्निज्वालानुषङ्गः प्रचुरदुरिततो वर्तते श्रूयमाणं ॥ ५३ ॥
नरकमें शीत-उष्णकी बड़ी ही बहुलता है । तीन लोकका अन्न और पानी पीने पर भी भूख-प्यास नहीं मिटती, परन्तु वहाँ एक कण भी अन्नका नहीं मिलता और न पानीकी एक बूँद ही मिलती है । वहाँ पर नारकी इसके हाथ-पैर - नाक-कान आदिको शस्त्रों द्वारा छेदते हैं, भेदते हैं, करोतसे चीरते हैं, यंत्रोंसे पेलते हैं, इसके शरीरकी आँते पकड़कर खींचते हैं, मुद्गरोंसे पीटते हैं, और दहकती हुई अग्निमें उठाकर फेंकते हैं। इस तरह यह जीव अपने किये हुए पापकर्मोंके कारण नरकोंमें खूब कष्ट उठाता है ॥ ५३ ॥
तिर्यक्ष्वातपशीतवर्षजनितं दुःखं भयं कानने,
सिंहादेरतिभारकर्मवहनं सन्ताडनं छेदनम् । क्षुत्तृष्णादि च कीटनाममशकैर्दशस्तथा माक्षिकैः, स्वाधीनत्वपराङ्मुखं विधिवशाद्बन्धादिकं वर्तते ॥ ५४ ॥