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दूसरा अध्याय ।
शान्तिनाथं जिनं नस्वा पापशान्तिविधायकम् ।
वक्ष्येऽधुना त्रिवर्णानां शौचाचारक्रियाक्रमम् ॥१॥ अब पापोंको शान्त करनेवाले शान्तिनाथ तीर्थकरको नमस्कार कर तीनों वर्ण-सम्बन्धी शौचाचार क्रियाका क्रम कहा जाता है ॥ १॥
शौचेन संस्कृतो देहः संयमार्थ मवेत्परम् ।
पिना शौचं तपो नास्ति विशिष्टान्वयजे नरि ॥२॥ जिस शरीरकी शौच द्वारा शुद्धि की गई है, वही शरीर संयम, व्रत, तपश्चरणके योग्य होता है। विना शारीरिक शुद्धिके, उत्तम कुलमें उत्पन्न हुआ भी मनुष्य तपश्चरणके योग्य नहीं है ॥ २॥
संस्कृता शोभना भूमि/जानां सत्फलप्रदा ।
कारणे सति कार्य स्यात्कारणस्यानुसारतः॥३॥ __ हल वगैरह जोतकर साफ की हुई जमीन ही उत्तम फलोंको फलती है, सो ठीक ही है, क्योंकि कारणोंके मिलनेपर उनके अनुसार ही कार्य पैदा होता है ॥ ३॥
उप्तं बीजं शुभं भूमौ सहस्रगुणितं फलम् ।
ऊपरेऽसंस्कृते देशे वीजमुतं विनश्यति ॥४॥ जो बीज साफ की हुई जमीनमें बोया जाता है उसके हजारों फल लगते हैं। और यदि वही बीज विना साफ की गई ऊपर जमीनमें बोया जाता है तो फल होना तो दूर रहा वह स्वयं नष्ट हो जाता है। सारांश इन दोनों श्लोकोंका यह है कि यह शरीर मानिन्द जमीनके है, जैसे जिस जमीनमें अधिक खाद दिया जाता है; दो-चार वार हल चलाकर सैवार दी जाती है तो उसमें अनाज वगैरहकी उपज भी अच्छी होने लगती हैं । इसके अलाबा जो ऊपर जमीन होती है उसमें पैदा होना तो दूर रहा बोया हुआ बीज भी नष्ट हो जाता है । वैसे ही जिस शरीरका विधिपूर्वक संस्कार किया जाता है वह शरीर संयम, व्रत, नियम आदि अच्छे अच्छे आचरणोंके धारण करनेका पात्र बन जाता है । और जिसका संस्कार नहीं किया जाता वह कभी उन संयम, तप आदिके धारण करनेके योग्य नहीं होता। अतः शरीरका संस्कार करना बहुत जरूरी है ॥ ४ ॥
गुरूपदशतो लोके निर्ग्रन्थपदधारणम् । संयमः कथ्यते सद्भिः शरीरे सँस्कृतेऽस्ति सः॥५॥