Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
पवनंजय के साथ अंजनी के लग्न और उपेक्षा
वैताढ्य पर्वत पर 'आदित्यपुर' नाम का नगर था । 'प्रहलाद' नाम का राजा वहां का अधिपति था । उसके 'केतुमती' रानी से 'पवनंजय' पुत्र का जन्म हुआ। पवनंजय बलवान् एवं साहसी था । आकाशगामिनी विद्या से वह यथेच्छ भ्रमण करता रहता था। उस समय भरत क्षेत्र में समुद्र के किनारे, महेन्द्रनगर में महेन्द्र' नरेश राज्य करते थे। उनकी 'हृदयसुन्दरी' रानी से 'अंजनासुन्दरी' नामक पुत्री उत्पन्न हुई । जब वह यौवनावस्था में आई, तब नरेश को वर खोजने की चिन्ता हुई । मन्त्रियों ने सैकड़ों-हजारों विद्याधर युवकों का परिचय दिया, पट-चित्र दिखाये । एक मन्त्री ने राजा हिरण्याभ के पुत्र विद्युत्प्रभ' और प्रहलाद-नन्दन ‘पवनंजय' का पट-चित्र बतला कर परिचय कराया। राजा को ये दोनों राजकुमार ठीक लगे। उन्होंने मन्त्री से उनकी विशेषताएँ पूछी । मन्त्री ने कहा--"दोनों राजकुमार समान कुलशील और रूपवाले हैं। किन्तु विद्युत्प्रभ तो युवावस्था में प्रवेश होते ही प्रव्रजित हो कर मोक्ष प्राप्त कर लेगा-ऐसा भविष्यवेत्ता ने बतलाया है और पवनंजय दीर्घायु है। इसलिये मेरा निवेदन है कि राजनन्दिनी के लिए पवनंजय उपयुक्त वर होगा।" राजा को पवनंजय सर्वथा योग्य वर प्रतीत हुआ।
राजा महेन्द्र और प्रहलाद नरेश के मध्य सन्देशों का आदान-प्रदान हो कर संबंध हो गया और लग्न की तिथि निश्चित हो गई। राजकुमार पवनंजय के मन में अपनी भावी पत्नी को देखने की इच्छा हुई । उसके 'प्रहसित' नाम का एक मित्र था । राजकुमार ने मित्र से कहा__" बन्धु ! तुमने राजनन्दिनी अंजना को देखा है ? वह कैसी है ?"
---हां बन्धु ! मैने उसे देखा है । वह देवांगना के समान सर्वांग सुन्दरी है । उसका सौंदर्य देखने से ही जाना जा सकता है, वाणी द्वारा बताया नहीं जा सकता।"
--" मैं अपनी होने वाली अर्धांगना को लग्न के पूर्व देखना चाहता हूँ, किन्तु गुप्तरूप से । इसका उपाय शीघ्र होना चाहिए"--पवनंजय को विलम्ब सहन नहीं हो रहा था ।
"कोई कठिनाई नहीं । अपर रात्रि के समय, विद्या के योग से अदृश्य रह कर उसे
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org