Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
View full book text
________________
७०
तीर्थकर चरित्र
गन्धर्व (व्यन्तर जाति का देव)था । बनराज की दहाड़ और उससे बनचर पशओं में मची हुई भगदड़ एवं कोलाहल सुन कर मणिचूल ने अष्टापद का रूप बना कर सिह का पराभव किया। उसके बाद अपने मूल स्वरूप में उन दोनों सखियों के सामने प्रकट हुआ। उसने और उसकी देवी ने दोनों सखियों को आश्वासन दे कर आश्रय दिया । वे वहाँ शांति से रहने लगीं । गर्भकाल पूर्ण होने पर अंजनासुन्दरी ने एक पुत्र को जन्म दिया। बालक बड़ा तेजस्वी और सुलक्षणों से युक्त था । उसके चरण में वज्र अंकुश और चक्र के चिन्ह थे । वसंतमाला ने उत्साह एवं हर्षपूर्वक प्रसूति कर्म और परिचर्या की । अंजना के मन में खेद हो रहा था। वह सोच रही थी;--
“यदि अशुभ कर्मों का यह दुर्विपाक नहीं होता और मैं अपने स्थान पर होती, तो इस प्रसंग पर राज्यभर में कितनी प्रसन्नता होती ? सारे नगर और राज्यभर में तथा पीहर के राज्य में उत्सव मनाया जाता। समस्त वातावरण ही मंगलमय हो जाता। किन्तु मेरे पाप-कर्मों से आज यह राजपुत्र, वनखण्ड की जनशून्य गुफा में उत्पन्न हुआ, जहाँ किसी प्रकार की अनुकूलता नहीं है। एक बनवासी भील के घर पुत्र जन्म हो, तो वह और उसका परिवार भी अपने योग्य उत्सव मनाता है, परन्तु यह राजकुमार आज पशु के समान परिस्थिति में मानवरूप में आया। इसका हर्ष मनाने वाला यहाँ कोई नहीं है । हा, मैं कितनी हतभागिनी हूँ।"
अंजना को आर्तध्यान करती हुई देख कर वसंतमाला ने साहस बढ़ाने के लिए कहा--
"देवी ! राजमहिषी वीरपत्नी और वीरमाता हो कर कायर बनती है ? क्या तू नहीं जानती कि तेरी कायरता का इस बालक पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? तू इसे कायर बनाना चाहती है, या शूरवीर ? क्या कायर का दूध भी कभी वीरता उत्पन्न करता है ? वीरांगना कभी विपत्ति से घबड़ाती है ?"
__ “बहिन ! सावधान हो और धर्म, धैर्य और साहस को धारण कर । अब अपना नहीं, बालक का हित देखना है । अब तो हमारी विपत्ति के बादल भी हटने वाले हैं।' मामा-भानजी का मिलन और बनवास का अंत
इस प्रकार वे दोनों बात कर रही थी कि इतने में एक विद्याधर उसी बन में, उनके पास हो कर निकला। उसने राजघराने जैसी महिलाओं को देख कर उनका परिचय पूछा।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org