Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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मणिचूड़ की कथा
कर के तुम्हारी लूटी हुई राज्यश्री तुम्हें पुनः प्राप्त कराऊंगा। तुम विश्वास करो। मैं पाण्डू-पुत्र अर्जुन हूँ। कायरता छोड़ कर साहस अपनाओ । तुम पुनः अपना राज्य प्राप्त करोगे"-अर्जुन ने मणिचूड़ को आश्वासन दिया।
अर्जुन का परिचय और आश्वासन सुन कर मणिचूड़ प्रसन्न हुआ। उसने अर्जुन की यशोगाथा सुन रखी थी। ऐसे महान् धनुर्धर की सहायता प्राप्त होना ही सद्भाग्य का सूचक है । उसे विश्वास हो गया कि अब राज्य प्राप्ति दुर्लभ नहीं होगी। उसने अर्जुन की प्रशंसा करते हुए कहा
__ “महानुभाव ! आपके दर्शन ही मेरे दुर्भाग्य रूपी अन्धकार का विनाश करने वाले हैं । मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपकी कृपा से मैं अपनी विलुप्त राज्यश्री पुनः प्राप्त कर सकूँगा । परंतु हम विद्याधर जाति के हैं। हमारे पास वह विद्या होती है कि जिससे विजय वही प्राप्त कर सकता है जो विशेष विद्या सम्पन्न हों। बिना विद्या या अल्प विद्या वाले से विशेष विद्या वाले को जीतना महा कठिन होता है । इसलिए पहले आप मुझसे विद्याधरी-विद्या सीख लीजिये। इससे शत्रु पर विजय पाना सरल हो जायगा।"
अर्जुन ने विद्या सीखना स्वीकार किया। मणिचूड़ ने अपनी पत्नी को समझा कर पीहर भेज दिया । वह अर्जुन की सहायता पा कर आश्वस्त हो चुकी थी। उसने भी
, बहिन की सोहाग-रक्षा का वचन ले कर प्रयाण किया। इसके बाद अर्जुन एकाग्र हो कर विद्या सिद्ध करने में लग गया। उसकी साधना भंग करने के लिए कई प्रकार के दैविक उपसर्ग हुए, परन्तु वह निश्चल रहा । छह मास की साधना से वह विद्याधरी महाविद्या सिद्ध कर सका। विद्या की अधिष्टात्री देवी प्रत्यक्ष हुई और अर्जुन से वर माँगने का कहा । अर्जुन ने कहा--"जब मैं स्मरण करूँ, तब उपस्थित हो कर कार्यसिद्ध करना ।" "तथास्तु" कह कर देवी अदृश्य हो गई।
धनंजय (अर्जुन) विद्यासिद्ध हो गए। वे विश्राम कर रहे थे। इतने में आकाशमार्ग से दो विमान आये और उनके निकट ही उतरे। उनमें से मणिचूड़ की रानी चन्द्रानना और कई विद्याधर योद्धा उतरे। कुछ गन्धर्व भी साथ थे। उन्होंने आते ही वहीं मणिचूड़ को स्नानादि करवा कर राज्याभिषेक किया, गायन-वादित्रादि से उत्सव मनाया और अर्जुन सहित सभी विमान में बैठ कर रत्नपुर नगर के बाहर आये । एक दूत विद्युत्वेग के पास भेजा और कहलाया
"महाबाहु अर्जुन की आज्ञा है कि तुम मेरे मित्र मणिचूड़ का राज्य छिन कर स्वयं . राजा बन बैठे हो । यह तुम्हारा अत्याचार है । यदि तुम्हें अपना जीवन प्रिय है, तो इसी
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