Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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अर्जुन ने दुर्योधन को छुड़ाया
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के लिए ही आया होगा । अच्छा हुआ जो यहाँ पहुँचने के पूर्व ही उसे उसके पाप का फल मिल गया' -भीमसेन ने कहा और अर्जुन आदि ने समर्थन किया । द्रौपदी और भीमसेन का विरोध सुन कर भानुमती हताश हो गई। उसने सोचा--"अब धर्मराज से यहा यता नहीं मिल सकेगी ।" इतने में युधिष्ठिर बोले---
---" बन्धुओं ! आवेश छोड़ो और कर्तव्य का विचार करो । अब तक हम अपने धर्म का पालन करते रहे । विपत्तियाँ झेली, परन्तु धर्म नहीं छोड़ा। प्राणपण से निभाये हुए धर्म को हम आदेश में बा कर कैसे छोड़ सकते हैं ? नहीं, हम अपनी मर्यादा नहीं छोड़ेंगे । भले ही दुर्योधन ने हमारे साथ दुष्टता की और हमारा राज्य हड़प लिया। यह हमारा अपना पारस्परिक विवाद है । इससे कौटुम्बिकता नष्ट नहीं हो सकती। यदि दूसरा कोई हमारे बन्धु को हानि पहुंचाना चाहे, तो हम चुप नहीं रह सकते । दूसरों के लिए हम सब एक हैं अर्जुन ! तुम जाओ भाई ! दुर्योधन को मुक्त कराओ।"
"परन्तु बन्धुवर ! अस्प सोचिये"..........
“ नहीं, नहीं, विवाद नहीं करना चाहिए । दुर्योधन से हमारा झगड़ा है, तो उसका बदला हम लेंगे। अभी वह विपत्ति में है और हमारा माई । फिर उस की रानी हमारी बहुरानी--हमसे सहायता की याचना कर रही है । हमें इस समय अपने कर्तव्य को ही लक्ष्य में रखना है । जाओ, शीघ्र जाओ । विलम्ब नहीं करो। हम सब यहां परिणाम जानने के लिए उत्सुकतापूर्वक तुम्हारी राह देखेंगे।"
अर्जुन ने दुर्योधन को छुड़ाया
युधिष्ठिर की आज्ञा होते ही अर्जुन उठा और एकान्त में जा कर, एकाग्रतापूर्वक विद्या का स्मरण कर, विद्याधर नरेश इन्द्र को आकर्षित किया । इन्द्र ने विद्या के द्वारा अर्जुन का अभिप्राय जान कर एक विशाल विमान-सेना के साथ चन्द्रशेखर को, अर्जुन के नहायतार्थ भेजा । अर्जुन सेना सहित केलि वन में पहुंचा । युद्धोपरान्त विद्याधर-गण विश्राम कर रहे थे । अर्जुन ने निकट पहुँच कर ललकार लगाई।
“दुर्योधन को बन्दी बनाने वाले को में चुनौती देता हूँ। जो भी हो, शस्त्र-सुजज हो कर शीघ्र ही सामने आवे ।"
दुर्योधन इस ललकार को सुन कर प्रसन्न हुआ और विद्याधर चोंके । दोनों ओर
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