Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

View full book text
Previous | Next

Page 676
________________ बलदेवजी, सुथार और मग का स्वर्गवास ६६३ कककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककन उसकी दृष्टि मुनिराज पर पड़ी। उनके अतिशय रूप पर मोहित हो कर वह एकटक उन्हीं को देखती रही और उसके हाथ, काम करते रहे। उसे यह भी भान नहीं रहा कि वह घड़े को छोड़ कर, अपने बालक के गले में रस्सी बांध कर, कुएं में उतार रही है। बच्चे के चिल्लाने और निकट खड़ी दूसरी स्त्री के कहने पर वह संभली। मुनिराज ने जब यह देखा, तो सोचा कि तपस्या करते और बिना शरीर-पारस्कार करने पर भी मेरा रूप दुसरों को मोहित कर के अनर्थ करवा रहा है, तो मुझे अव नगर में आना ही नहीं चाहिये और वन में ही रह कर, काष्ठादि के लिये वन में आने वाले वनोपजीवी लोगों से पारणे के दिन निर्दोष भिक्षा लेनी चाहिये। वे लोट कर तुंगिकमिरो पर आये और संयम-तप की आराधना करने लगे । वनजीवी लोगों ने एक तेजस्वी मुनिराज को ध्यान-मम्न देखा, तो चकित रह गए। उन्होंने नगर में जा कर बात की और यह बात राजा तक पहुंची। राजा ने पता लगाया । उसे सन्देह हुआ कि मेरा राज्य लेने के लिये ही यह कठोर साधना और मन्त्र सिद्ध कर रहा है। इसे तत्काल मार डालना चाहिये, जिससे मेरा राज्य सुरक्षित रहे। राजा सेना ले कर मुनिराज को मारने के लिये पर्वत पर आया । सिद्धार्थ देव, मनिराज का रक्षण कर रहा था। उसने राजा को सेना सहित आते देख कर, वैक्रिय-शक्ति से विकराल एवं भयंकर रूप वाले अनेक सिंह प्रकट किये और उनसे सेना पर आक्रमण करवाया। सेना भाग खड़ी हुई। उसके शस्त्र किसी काम में नहीं आये । अन्त में राजा ने मुनि को वन्दना की और लौट आया। मुनिर राज शान्तिपूर्वक आराधना करने लगे। उनके प्रभाव से वन के सिंह-व्याघ्रादि प्राणी भी आकर्षित हुए और शान्ति से रहने लगे। कुछ पशुओं परतो इतना प्रभाव हुआ कि वे भी धर्मभावना से युक्त हो कर शान्त जीवन व्यतीत करने लगे। कोई-कोई तो उपवासादि भी करने लगे और मुनिराज के समीप ही रहने लगे। इनमें एक मृग ऐसा था कि जिसे श्योपशम बढ़ने पर जातिस्मरण ज्ञान हो गया। वह संवेगयुक्त मुनिराज के निकट रह कर अपने योग्य साधना करने लगा। वह वन में काष्ठादि के लिये आये हुए लोगों में फिरता और जहाँ आहार-पानी का योग होता, वहां तपस्वी सन्त के आगे-आगे चलता हुआ ले जाता । इस प्रकार वह मुनिराज-श्री के आहार प्राप्ति में सहायक बनता। एक बार कुछ सुथार, रथ बनाने के लिये लकड़ी लेने बन में मये। लकड़ी काटतेकाटते मध्यान्ह का समय हो गया, तब सभी ने भोजन करने का विचार किया । उधर मृग उन्हें देख कर तयस्वी महात्मा के पास आया और झुक-झुक कर प्रणाम करने लगा। महर्षि उसका आशय समझ गये और उसके पीछे चलने लगे। सुधारों के अग्रगण्य ने, मृग के पीले एक महात्मा को अपनी ओर आते हुए देखा, तो हर्षित हो उठा और सोचने लगा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 674 675 676 677 678 679 680