Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 617
________________ तीर्थङ्कर चरित्र किया है । किन्तु तुम्हारी वासना नष्ट नहीं हुई । तुम्हें अपने कुल का भी गौरव नहीं है । अगंधन कुल का सर्प, जलती हुई आग में पड़ कर भस्म हो जाता है, परन्तु मन्त्रवादी की इच्छानुसार, अपना त्यागा हुआ विष फिर नहीं चूसता । किन्तु तुम साधुवेश में पापी हो । तुम्हें अपने उत्तम कुल का भी गौरव नहीं है । तुम समुद्रविजयजी जैसे महानुभाव के पुत्र और त्रिलोकपूज्य भगवान् अरिष्टनेमि जी के बन्धु हो कर भी ऐसे नीचतापूर्ण विचार रखते हो ? धिक्कार है, तुम्हारे कलंकित जीवन का। ऐसे कुत्सित जीवन से तो तुम्हारा मर जाना ही उत्तम है ।" ရာ ६०४ " स्त्री को देख कर कामासक्त होने वाले ऐ रथनेमि ! तुम संयम का पालन कैसे कर सकोगे ? ग्राम-नगरादि में विचरण करते हुए तुम जहाँ जहाँ स्त्रियों को देखोगे, वहीं विचलित हो कर विकारी बनते रहोगे, तो तुम्हारी दशा उस हड वृक्ष जैसी होगी, जो वायु के झोके मे हिलता हुआ अस्थिर होता है । " वास्तव में तुम संयमधारी नहीं, बेगारी हो। जिस प्रकार ग्वाला, गो-वर्ग का स्वामी नहीं होता और भंडारी, धन का स्वामी नहीं होता, उसी प्रकार तुम भी संयम रूपा धन के अधिश्वर नहीं हो, चाकर हो, भारवाहक हो, बेगारी हो । संयमधारी निर्ग्रथ कहला कर भी असंयमी मानस रखने वाले रथनेमि ! तुम्हें धिक्कार है । तुम कुल-कलंक हो, निर्लज्ज हो, घृणित हो। तुम्हारा जोवन व्यर्थ है ।" भगवती राजमती के ऐसे ओजपुर्ण प्रभावशाली वचनों ने अंकुश का काम किया । उससे रथनेमि का मद उतर गया । उसका कामोन्माद नष्ट हो गया । राजमती के रूपदर्शन से उसमें जो विषय-रोग उत्पन्न हुआ था, वह इन सुभाषित शब्द रूपी रसायन से दूर हो गया । स्थान- भ्रष्ट हो कर भागा हुआ मदोन्मत्त गजराज फिर अपने स्थान पर आ कर चुपचाप स्थिर हो गया । रथनेमि उतम-जाति और कुल से युक्त था । उदय भाव की प्रबलता से वह डगमगा गया था । किन्तु भगवती राजमनी के वचनों ने उसे आत्म-मान कराया । वह संभल गया । भगवान् के समीप आकर उसने अपने पाप की आलोचना की और प्रायश्चित्त लेकर शुद्धि की । फिर वह धर्म-स धना में साहसपूर्वक जुट गया । अब उसका आत्म-वीर्यं, आत्म-विशुद्धि ही में लगा था । उसने क्रोधादि कषाय और इन्द्रियों के विषयों पर विजय प्राप्त की। वह वीतराग सर्वज्ञ बना और सिद्व पद प्राप्त किया । भगवती राजमती भी तप यम का पालन कर वीतराग सर्वज्ञ - सर्वदर्शी बनी और मुक्ति प्राप्त कर फरम सुख में लीन हुई । Jain Education International एकांक For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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