Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 652
________________ कककककककक परिव्राजकाचार्य से चर्चा ses 3 Fes ssesssssses ာာာာာာာာာာာ नहीं हो सकती । प्राणातिपात यावत् मिथ्यादर्शनशल्य के सेवन से आत्मा के पाप कर्मों में उसी प्रकार से वृद्धि होती है, जिस प्रकार रक्त से लिप्त वस्त्र को रक्त से धोने से होती है । " क्यों सुदर्शन ! यदि ऐसे वस्त्र को मल-शोधक सज्जी- क्षार युक्त जल में भिगोवे, फिर चूल्हे पर चढ़ा कर उबाले और उसके बाद स्वच्छ जल से धोवे तब तो शुद्ध होता हैन ?" "हाँ, महात्मन् ! इस विधि से वस्त्र शुद्ध हो जाता है " - सुदर्शन ने कहा । " हे सुदर्शन ! हम भी प्राणातिपातादि पापों से लिप्त आत्मा के मल को दूर करने के लिए प्राणातिपात विरमण आदि अठारह पापों का त्याग कर के अपने आत्मवस्त्र को शुद्ध करते हैं । जिस प्रकार रुधिर से लिप्त वस्त्र का रुधिर छुड़ाने के लिये क्षारादि प्रक्रिया से वस्त्र शुद्ध होता है ।" अनगार महर्षि का उत्तर सुन कर नगर श्रेष्ठी सुदर्शन समझ गया । उसने जीवादि तत्त्वों का स्वरूप समझ कर श्रमणोपासक के व्रत स्वीकार किये और जिनधर्म का पालन करता हुआ विचरने लगा । परिव्राजकाचार्य से चर्चा परिव्राजकाचार्य शुकदेवजी ने सुना कि सुदर्शन सेठ ने शूचिमूल धर्म का त्याग कर विनयमूल धर्म स्वीकार कर लिया, तो वे चिंतित हो उठे । सुदर्शन उनका प्रमुख उपासक था और प्रभावशाली था । उसके परिवर्तन का गंभीर प्रभाव होने की संभावना थी । उन्होंने सोचा ' में सौगन्धिका नगरी जाऊँ और सुदर्शन को समझा कर पुनः अपना उपासक बनाऊँ ।' वे अपने एक हजार शिष्यों के साथ सौगन्धिका पहुँचे और आश्रम में अपने भण्डोपकरण रख कर सुदर्शन सेठ के घर आये । पहले जब भी आचार्य उसके घर आते, तब वह उनका अत्यन्त आदर-सत्कार करता, वन्दन- नमस्कार करता और बहुमानपूर्वक आसनादि प्रदान करता । किन्तु इस बार आचार्य को देख कर भी उसने उपेक्षा कर दी, न तो आदर दिया, न खड़ा हुआ न नमस्कार ही किया । वह मौनपूर्वक बैठा रहा । अपनी उपेक्षा और अनादर देख कर आचार्य " सुदर्शन ! तुम तो एकदम पलट गये मेरा भक्तिपूर्वक आदर-सत्कार करते, वन्दना Jain Education International ६३६ पूछा लगते करते, हो। पहले जब मैं आता, तो तुम किन्तु आज तुम्हारा व्यवहार ही For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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