Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 654
________________ परिव्राजकाचार्य से चर्चा ६४१ कककककककककककककककककककककककक कककककककककककक "हे शुकदेव ! हम ईर्यासमितिपूर्वक चलते हुए जहाँ भ' जाते हैं, वहाँ हमारे लिए कोई स्थान, आश्रम या मठ आदि निश्चित नहीं होता । हम निर्दोष स्थान देख कर ठहर जाते हैं, भले ही वह आराम (बगीचा) हो, उद्यान हो, देवकुल, सभा, प्याऊ, कुंभकार आदि की शाला हो, या फिर वृक्ष के नीचे ही ठहर जाते हैं। यह हमारा निर्दोष विहार है।" “भगवन् ! आपके लिए सरिसव भक्ष्य है या अभक्ष्य ।" --परिव्राजकाचार्य ने यह प्रश्न अनगार महर्षि की बुद्धि की परीक्षा करने अथवा वाजाल में फाँस कर परास्त करने की इच्छा से पूछा । इसके पूर्व के प्रश्न साधना की निर्दोषता-सदोषता जानने के लिये पूछे थे। "सरिसव भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी।" “यह कैसे ? दोनों बातें कैसे हो सकती है"--प्रतिप्रश्न । “सरिसव दो प्रकार के हैं-१ मित्र-सरिसव और २ धान्य-सरिसव । मित्र-सरिसव तीन प्रकार के हैं--१ साथ जन्मे हुए २ साथ वृद्धि पाये हुए और ३ साथ खेले हुए । ये तीनों प्रकार के मित्र-सरिसव हमारे लिए अभक्ष्य हैं।" __ धान्य-सरिसव (सरसों) दो प्रकार के हैं--१ शस्त्र-परिणत और २ अशस्त्र-परिणत । अभस्त्र-परिणत (जो अग्नि आदि के प्रयोग से अचित्त नहीं हुए) हमारे लिए अभक्ष्य है। शस्त्र-परिणत भी दो प्रकार के हैं -१ प्रासुक (सर्वथा अचित्त) और २ अप्रासुक (शस्त्र-परिणत होने पर भी जो अचित्त नहीं हुए या मिश्र रहे) इनमें से अप्रासुक धान्य-सरिसव अभक्ष्य है। प्रासुक धान्य-सरिसव भी दो प्रकार का होता है--१ याचित (याचना किये हुए) और २ अयाचित । अयाचित अभक्ष्य हैं । याचित के भी दो भेद हैं-१ एषणीय (याचने योग्य, सभी प्रकार के दोषों से रहित ) और २ अनेषणीय। इनमें से अनेषणीय अभक्ष्य है। एषणीय के भी दो भेद हैं--१ लब्ध (प्राप्त) और २ अलब्ध । अलब्ध तो अभक्ष्य है और जो लब्ध है, वही हम श्रमण-निर्ग्रथों के लिए भक्ष्य है' --अनगार-महर्षि ने विस्तार के साथ उत्तर दिया । ___ + भगवती मूत्र श. ८ उ. १० से प्रश्न सोभिल ने भी किये, ऐसा उल्लेख है । वहां शस्त्रपरिणत एषणीय, याचित और लब्ध-ये चार भेद हैं। किन्तु यहाँ 'प्रासुक' भेद विशेष दिया है। यह भेद भगवती के शस्त्र-परिणत में गभित है। किन्तु इसका क्रम समझ में नहीं आया। याचित होने के पूर्व ही प्रासुक होना उचित लगता है। कदाचित् लिपि करने में आगे-पीछे हो गया हो? पुष्पिका उग के तीसरे अध्ययन में भी यही विषय आया है। वहाँ ये प्रश्न सोमिल ने भ. पाश्र्वनाथ स्वामी से किये थे। ये दोनों सोमिल पथक हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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