Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 669
________________ हरि-हलधर पाण्डव-मथुरा की ओर अमरापुरी के समान द्वारिका नगरी, उसका वैभव और समस्त स्वजन-परिजन का सम्पूर्ण विनाश देख कर श्रीकृष्ण विचलित हो गए । उनसे यह सर्वस्व नाश देखा नहीं गया । भवितव्यता के आगे दे विवश रहे। उन्होंने बलदेवजी से कहा “बन्धुवर ! बब क्या करें? किधर बलें ? इस अशुभ घड़ी में अपना कौन है ? जो आज तक हमारे सेवक रहे, वे इस अवस्था में हमें आश्रय नहीं दे सकेंगे। उनमें शत्रुता का उदय होना स्वाभाविक है । फिर अपन कहाँ जावें ?" “बन्धु ! इस समय अपने आत्मीय हैं, तो केवल पाण्डव ही । हमें उन्हीं के पास चलना चाहिये।" ___“नहीं, आर्य ! मैने उन्हें देश-निकाला दे कर दूर कर दिया था । भला, वे हमारे आश्रयदाता कैसे हो हो सकते हैं ? और अपन उनके पास कसे जा सकते हैं ?" __ " उन पर हमारे बहुत उपकार हुए हैं और वे सत्पुरुष हैं । सत्पुरुष तो अपकारी पर भी उपकार करते हैं । वे अपने पर हुए अपहार को नहीं देखते । हमारे द्वारा अनेक बार उपकृत हुए पाण्डव हमारा आदर-सत्कार ही करेंगे । हमें उन्हीं के पास पहुँचना चाहिये।" दोनों बन्धु पाण्डव-थरा के लिए नैऋत्य दिशा में चलने लगे। द्वारिका-दाह के समय बलदेव जी के पुत्र कुब्जवारक ने भगवान् का स्मरण कर प्रवजित होने की उत्कृष्ट भावना की । वह चरम-शरीरी था । निकट रहे बंभक देव ने उसे उठा कर भगवान नेमिनाथ के समीप रख दिया । उस समय भगवान, पाण्डवों के राज्य में विचर रहे थे। उसने मश्वान में प्रवज्या ग्रहण की । द्वारिका में श्रीकृष्ण की कई रानियां भी थी। उन्होंने अनशन किया ओर भवान् का स्मरण करती हुई दिकंफत हुई । छह महाने तक द्वारिका चलती रही। अन्तिम युद्ध में भी विजय कृष्चा-बलदेव चलते-चलत-हस्तिका नगर के निकट आये । कृष्ण को बोर से भूख लगी थी। उन्होने जोष्ठ-बन्धु बालादेक से कहा, तो बलदे वजो कोले-“तुम इस वृक्ष के नीचे बैठो। में नगर में जा कर भोजन लाता हूँ ( सावधान रहना । यदि नकर में मुझ पर कुछ संकट आया, तो में सिंहनाद कया । उसे सुन करा तुम मेरो सहायतार्य क ले जाना।" बलदेवजी नगर में पहुँचे । उन्हें देख कर लोग आश्चर्य करने लगे कि- अहो ! यह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |

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