Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 667
________________ तीर्थकर चरित्र ६५४ कककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककक सफल नहीं हो सकेगा। मेरी शक्ति वहीं काम देती है, जहाँ धर्म-बल घट कर पाप-बल बढ़ जाता है । देखें कहाँ तक बचे रहेंगे मुझसे--मेरे शत्रु । कभी-न-कभी तो वह दिन आएगा ही सही । इस द्वारिका का विनाश में नहीं कर दूं, तब तक मेरे हृदय में शांति नहीं हो सकती । मेरे हृदय में धधकती हुई प्रतिशोध की ज्वाला शान्त नहीं हो सकती। मैं अपना वैर ले कर ही रहूँगा।" धर्म के प्रभाव से विपत्ति टलती रही। इस प्रकार ग्यारह वर्ष व्यतीत हो गए। जब अशुभ कर्मों का उदय होता है, तो मनुष्यों की मनोवृत्ति पलट जाती है और वैसे निमित्त भी मिल जाते हैं। जनता के मन में शिथिलता आई और तर्क उत्पन्न हुआ-- "अब द्वैपायन शक्तिशाली देव नहीं रहा । हमारी धर्म-साधना ने उसकी आसुरी शक्ति नष्ट कर दी। इन ग्यारह वर्षों की साधना से वह हताश हो कर चला गया है । अब भय एवं आशंका की कोई बात नहीं रही। अब हम निर्भय हो कर पूर्ववत् सुखोपभोग कर सकते हैं।" इस प्रकार की भावना ने धर्म-साधना छुड़वा दी और जनता भोगविलास में गृद्ध हो गई । मद्य-पान, अर्भक्ष्य-भक्षण और स्वच्छन्द भोगविलास से द्वारिका पर छाई हुई धर्मरक्षण की ढाल हट गई और द्वारिका अरक्षित हो गई । द्वैपायन ऐसे अवसर की ताक में ही था । उसने यह भी नहीं सोचा कि मेरे अपराधी एवं शत्रु तो कुछ राजकुमार ही थे, सारी द्वारिका नहीं, और उन गजकुमारों में से भी अनेक त्यागी बन कर चले गये हैं। उनका बदला मैं द्वारिका के नागरिकों से कैसे लूं ? उसके हृदय में तो द्वारिका का विनाश करने की धन-एक लगन लगी हुई थी। उसने अपनी पूरी शक्ति प्रतिशोध लेने में लगा दी। अचानक ही द्वारिका पर विविध प्रकार के उत्पात होने लगे। आकाश से उल्कापात (अंगारों का गिरना) होने लगा, पृथ्वी कम्पायमान हुई । ग्रहों में से धूमकेतु से भी बढ़ कर धूम्र निकल कर व्याप्त होने लगा, अग्नि-वर्षा होने लगी. सूर्य-मण्डल में छिद्र दिखाई देने लगा, सूर्य-चन्द्र के अकस्मात ग्रहण होने लगे। भवनों में रही हुई लेप्यमय पुतलिये अट्टहास करने लगी, देवों के चित्र भृकुटी चढ़ा कर हंसने लगे और नगरी में हिंसक पशु विचरते लगे । इस समय द्वैपायन देव अनेक शाकिनी भूत और बेताल आदि के साथ नगरी में घमता हआ लोगों को काल के समान दिखाई देने लगा । भीत-चकित लोगों के सामने अनेक प्रकार के अनिष्ट-सूचक चिन्ह एवं अराकुन प्रकट होने लगे जब पुण्य क्षीण होते हैं और अनिष्ट की लहर चलती है, तो मभी उत्तम वस्तुएं नष्ट हो जाती है, अथवा अन्यत्र चली जाती है हरी ओर ह घर के चक्र, हल आदि शस्त्र-रत्न भी नष्ट हो गए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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