Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 671
________________ तीर्थङ्कर चरित्र कककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककककका और गरजे;-" यह कौन दुष्ट है, जिसने मुझ सोये हुए पर प्रहार किया ? ऐ नीतिहीन कायर ! जरा सामने तो आ । में भी देखू कि तू कौन है और किस वैर का बदला लिया है ? मैने तो आज तक किसी निरस्त्र या असावधान पर प्रहार नहीं किया था । बोल तु कौन है ?' मृगया के लिए झाड़ी में छुपा जराकुमार चौका । वह बारह वर्ष से वन में भटक रहा था। उसके बाल बढ़ कर जटाजूट हो गए थे। दाढ़ी बढ़ी हुई थी। वस्त्र के स्थान पर व्याघ्रचर्म पहिना हुआ था। वह धनुष-बाण लिये हुए भटकता रहता था। वह वन के फल-मूल और पशुओं का मांस भक्षण कर के जीवन बिता रहा था । उसने श्रीकृष्ण के बात सुन कर कहा;-- "मैं हरिवंश रूपी समुद्र में, चन्द्रमा के समान प्रकाशित, दसवें दशाह श्रीवसुदेवजी का पुत्र और रानी श्री जरादेवी का आत्मज जराकुमार हूँ। मैं श्रीकृष्ण-बलदेव का बन्धु हूँ। भगवान् नेमिनाथजी की भविष्यवाणी से मेरे द्वारा बन्धु-वध होने की सम्भावना जान कर, मैं उसी दिन से वनवासी हुआ हूँ। आप कौन हैं ?" "अरे भाई ! तू मेरे पास आ । शीघ्र आ। मैं तेरा अनुज कृष्ण हैं, जिसके हित के लिये तू वनवासी हुआ है । हे बन्धु ! तेरा बारह वर्ष का वनवास व्यर्थ गया । आ, आ, मेरे पास आ"--श्रीकृष्ण बोले। भ्राता के वचन सुन कर जराकुमार उनके निकट आया और अपने भाई कृष्ण को देख कर मूच्छित हो गया । मूर्छा हटने पर विलाप करता हुआ बोला ___"अरे भाई ! तुम्हारी यह दशा कैसे हुई ? तुम एकाकी क्यों हो? क्या द्वारिका जल गई ? यादवकुल का नाश हो गया ? तुम्हारी यह दशा देख कर लगता है कि भगवान् नेमिनाथजी की भविष्यवाणी पूर्ण सफल हो गई है।" कृष्ण ने द्वारिका-दहन आदि सभी वृत्तांत सुनाया, तो जराकुमार रोता हुआ बोला; "भाई ! तुम्हारी रक्षा के लिये ही मैने वनवास लिया था, किन्तु मुझ बन्धु-घातक से तुम्हारी रक्षा नहीं हो सकी । मैं तुम्हारा हत्यारा बना । हे पृथ्वी ! तू मुझे अपने में समा ले । भ्रातृ-हत्या कर के अब मैं संसार में जीवित रहना नहीं चाहता।" कृष्ण ने कहा-"बन्धु ! शोक एवं पश्चात्ताप क्यों करते हो ? क्या भवितव्यता का उल्लंघन किसी से हो सकता है ? तुम्हें किसी भी प्रकार जीवित रहना है । यादव-कुल में एक तुम ही जीवित रहे हो, इसलिये वनवास त्याग कर गृहस्थ बनो । यह मेरी कौस्तुभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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