Book Title: Tirthankar Charitra Part 2
Author(s): Ratanlal Doshi
Publisher: Akhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
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तीर्थकर चरित्र
सुप्त, बालक और स्त्री पर प्रहार नहीं करता। वह पामर लुक-छिप कर वार करने वाला, नीतिविहीन, दुष्ट, अब कहाँ जा कर लुप्त हो गया है। मेरे सामने आवे, तो उसे इसी समय यमधाम पहुंचा दूं।"
बलदेवजी की सिंह-गर्जना सुन कर वन के सिंह और व्याघ्र जैसे ऋर एवं हिंस्रपशु भी भयभीत हो कर भाग गये । सामान्य पशु-पक्षी दहल उठ और पर्वत भी कंपायमान हो गए, परन्तु घातक का पता नहीं लग सका । वे वन में शत्रु की खोज करते थक गये और अन्त में भाई के शव के निकट आ कर उन्हें आलिंगन-बद्ध कर विलाप करने लगे;--
"हे भ्राता ! तुम बोलते क्यों नहीं ? बताओ, वह कौन दुष्ट है जिसने तुम्हें वाण मार कर घायल किया ? मैं उसे जीवित नहीं रहने दूंगा।"
"हे बन्धु ! क्या तुम मुझ से रुष्ट हो गये हो ? हाँ, मुझे पानी लाने में विलम्ब तो हुआ, परन्तु मैने जान-बूझ कर विलम्ब नहीं किया । तुम रुष्ट मत होओ। उठो और प्रसन्न हो जाओ।"
-“हे वीर ! मैने तुम्हें बालकपन में अपनी गोदी में उठा कर खिलाया । तुम छोटे होते हुए भी गुणों में मुझसे बहुत बड़े हो । अब रोष त्याग कर प्रसन्न हो जाओ।"
"हे विश्वोत्तम पुरुष श्रेष्ठ ! तुम तो उत्तम पुरुष हो । तुम मुझे कहते रहते थे कि-"दाऊ ! मैं आपके बिना रह नहीं सकता, न आपसे कभी रुष्ट हो सकता हूँ और न कभी आपके वचन का उल्लंघन करूँगा, फिर आज मुझसे अबोला क्यों लिया ? रूठ कर क्यों सो रहे हो ? कहां गई तुम्हारी वह प्रीति ?"
"हे पुरुषोत्तम ! तुमने नीति का उल्लंघन कभी नहीं किया, तो आज क्यों कर रहे हो ? यह सूर्यास्त का समय महापुरुषों के सोने का नहीं है। उठो, अब विलम्ब मत करो।"
इस प्रकार प्रलाप करते बलदेवजी ने सारी रात व्यतीत कर दी। प्रातःकाल होने पर भी जब कृष्ण नहीं उठे, तो बलदेवजी ने उन्हें स्नेहपूर्वक उठा कर कन्धे पर लाद लिया और वन में भटकने लगे । सुगन्धित पुष्प देख कर, उन पुष्पों से वे भाई का मस्तक और वक्षस्थल आदि सजाते और फिर उठा कर चल देते । पर्वत, नदी, तलहटी और बड़खाबड़ भूमि पर, भाई को स्नेहपूर्वक कन्धे पर लाद कर वे भटकने लगे। इस प्रकार भटकते हुए कितना ही काल व्यतीत हो गया ।
* त्रि. श. पु. च. में छह मास व्यतीत होना लिखा है।
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